पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१३२

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की गराना की जा सकती है किन्तु आकाश कि बिन्दु अन्क अगणित है। इसीको दर्शाने के लिये जेनोने कछुआ और अचीलीस का कूट प्रशन समुख रखा। यूनान क प्रसिध शीत्रगामी योधा अचिलीस और कछुआ दौड लगाते है। मान लिजीये के कछुआ चल रहा है और उसके एक हज़ार एक गज पीछे से अचीलिस चलना प्रारभ करता है। अचीलीस की गति क्छुअए से द्स गुनी है। अत: जब अचिलिस १००० गज चला तो क्छुआ १०० गज। जब अचिलिस १ गज चलेगा तो कछुआ १ गज चलेगा। इसी भति ही कम चलने पर भी कुछ न कुछ तो कछुआ भी ज़रुर चलेगा ही।

     प्राचीन काल मे इसी तरह की अवश्यक्ता और काल के विशय मे मनुश्यो की कल्पना थी। इसी कार्न अचीलिस और क्छुए क कूट प्रशन सदा बना ही रहा किन्तु आगे चल कर अर्स्तू ने यह दिखा दिया कि अवकाश समान काल के भी अनन्त भाग हो सकते है। किन्तु इस धारक पूरा पूरा प्रचार उस समय नही हो सक था।
     साराश प्राचीन काल से ही अवकाश और काल के अनन्त विभाग के सम्भध की कल्पना की जाने लगी थी। इसी आधार पर आधुनिक समय मे जड पदार्थो पर प्रयत्न करना प्ररम्भ किया गया। जिस प्रकर अव्काश के विभाग हो सकते है उससी भाति पदार्थ के भी होने चहिये। यदि इस द्रिश्टि से देखा जाये तो कहा जा सकता है कि प्राचीन अवकाश और काल का प्रश्न आज कल के जड पदार्थ के अर्गु सिधान्त् का बहुत बडा पथ प्रदर्शक है। इसके विप्रीत जो अनन्त विभाग सिधन्त वाद ह वह मानो अविच्छिन्न महत्वमान की कल्पन जड पदार्थ पर प्रयुक्त करने का यत्न है। दो आर्गु के बीच मे कुछ न कुछ तो अवकाश अवश्य रेह्ता ही है। केवल अर्गु से पदार्थ नही बने हुए है; बल्कि अर्ग और उनके बीच के अवकाश दोनो के मूल ही से पदार्थ तयार हुए है। यदि एसा न होता तो पदार्थ मे गति प्राप्त न हुइ होती। इसके विप्रीत अनन्त विभाग वादियो का काथन है कि विशव क प्रतेक भाग तथा स्थल द्र्व्य से परिपूर्ग है। प्रतएक वस्तु की जगति मछ्लियो की जल मे गति के समान है। जब पानी कात कर मछ्ली आगे बड्ती है तब पीछे का पानी फिर मिल जाता है और आगे मछ्ली कि स्थान मिलता है। यही दशा बाहर दुसरे पदार्थो की है।
    अधुनिक काल मे डेकाटे ने यह मान लिया है कि पदार्थ मे लम्बै, चोडई और मोटई तीनो होनी चाहिए। उसी भाति अव्काश मे भी कुछ न कुछ जड पदार्थ का होन अनिवार्य है क्योकि अवकाश मे भी मोटाई कि कल्पना ही होनी असम्भव है। इसी आधार पर डेकाटे ने अपने सभी ग्रन्थो मे जड्पदार्थ और अवकाश की कल्पना एक साथ ही की है। उस्क मत थ कि ज्ड पदार्थ अर्ग के सन्योग से बने है।
    इस भाति प्राचीन तथ अधुनिक तत्व वेताश्रो मे दो  अल्ग अलग मत थे। ये दोनो मत ग्रित की सन्ख्या की कल्पना और रेखाग्रिगत के अविच्छिन्न महत्व्मान की कल्पना से भिन भिन निक्ले है। जो सब धर्म पदार्थो मे द्रिश्तिगोच्र्र होते है उनका स्पश्तिकरन अनन्त विभाग कल्पना से होना सम्भव नही देख पड्ता। तिसप्र भी शस्त्रो मे अनेक स्थानो पर इसी कल्पना का उपयोग किय जाता है।जल्स्तिथि शस्त्र मे जल अर्थात तरल अथवा बेहने वाले पदार्थ की व्यास्या उसके एक महत्व धर्म के अधार पर की गयी है। तद्ननतर अनुमान से अनेक बाते सिध की है। इसी भति जलस्तिथि शस्त्र का ग्यान प्राप्त हुआ। इस कारन इस विशय पर विचार करने की अवशय्क्ता ही नही रह जाती कि जल द्वारा बना है य इसके अनन्त विभाग किये जा सकते है। इसी भति फ्रान्सीसी शास्त्र वेत्तओ ने स्तिथि स्थापक पदार्थो के विश्य मे अनेक सिधान्त बनाये। इन सिधान्तो को बनाते समय् यह मानना पडा था कि पदाथ्र से बने हुए और उन को एक दूसरे के का एक दुसरे क साथ आकर्शन होत है उससे प्रतयेक अर्गु अपनि मध्य्स्तिथि मे स्थिर रेह्ता है। इसके अन्नतर स्टाक इत्यादि ने यह साबित कर दिखलाया कि स्थिथि-स्थापक्त के विश्य मे जितनी बाते सिध की गयि है वे सब अनय उपाय से भी सिध की जा सकती है। स्थिथि स्थापक पदार्थ को चाहे कितना भि सुक्श्म मान लिया जाय वह जातीय ही होगा। इससे अरगुवाद मानने मे