पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बडी है और इतने अणु एक घन सेनतिमीटर मे रहते है।अब प्रयोग और गणितसे वयुके अणुकी जो निकाली गई है वह आगे दी जाती है। वयुका नाम उष्णता मान गतिप्रतिसे० हाइर्डोजन(उज्ज) ० शतांश २=३६०० सेन्

हवा         २४०,,     ४६=००,,

पारेकी भाप ०,, १=४००,,

इसी प्रकार गणितसे यह सिध्द हुआ है कि १/१०^११ ग्रमके वजन के अणुका यह अणू-समुच्य का प्राय: शुन्यशर्ताश उष्णमान पर २ मिलिमीटरके हिसाबसे प्रत्येक सेकेणडमे वेग होना चाहिये। १/१०^११ग्रमका अणु हमको सदमदर्शक यन्त्रसे दिखालाई देना समभव है।इसी प्रकर जिस वस्थु मे प्रति सेकेणडमे दो मिलिमीटर के हिसबसे वेग होता है वह वस्थु आँखसे देखी जा सकती है।परन्तु उस वस्थुका वेग कुछ काल तक एकही दिशामे अव्याहत रुपमे होना चहीये।अणु बरमंबार एक दुसरेसे अथवा बर्तनोके पाक्ष्र्वोसे टकराते है।इस कारण वेगकी दिशा बारबर बदलती रहती है।इस करण प्रत्यक अणूको व्यतिश: देखना सम्भव नही है।ऐसा होने पर भी लघ गतियो(शोट मोशण)का फल किसी औसत गति पर होना चाहिये।और वह गति हर सेकणडमे २ मिलीमीटर की अपेज्ञा कम होनी चहिये। और०वान स्मालुचौस्कीने यह दशाया है कि राबर्ट त्राउन नामके वनस्पतिशाख चेताने १=२७ ई० मे अणुकी जो देखिहै वह औसत गति है।ऊपर बतलाई हुई गतिको'व्राउमनकी गति'कहते है।व्राउमनकी गतिका नेरिक्शन करनेसे अणूकी गति का बहुत कुछ शान प्राप्त होत है। डाल्टन का सिध्दान्त-नीचे दिये गये नियमको डाल्टनने निकाला है।यदि किसी पात्रमे अलग अलग वयुका मिअण किया जाय तो उस पात्र प्रत्येक वायुके भारकाजोड उस मिअण के भारके बराबर होगा।उदाहाणके लिये एक पात्रमे नात्र (नाइत्रोजन)और प्राण(औकसीजण)का मिअण किया गया हो तो उस मिअणका भार(१४+६१)=७६ सेन्तिग्रम होगा क्युकि नत्रका भार १४ सेन्तिग्रम और प्राणका ६१ सेन्तिग्रम होत है। बाइल और चार्लसका सिध्द्न्त-जब किसि वायु का तापमान सिथर रहता है तो उस वायुका भार उस वायुके आकारमानका घनफल व्युत्कम प्रमांण(इनवरस प्रपोश्न)मे बदलता है।यदि उस वायुका घनफल स्थिर रक्खा जाय तो उसका भार तापमानके समप्रमाणमे बदलता है। एवागडोका सिध्दान्त-यदि बिल्कुल समान आकारके घनफलकी भिन्न भिन्न जातियोकी वायु एक ही उण्णतामान और दवावकी ली जाय तो उस भिन्न भिन्न वायुके अणुके अनुकी संख्या एक ही होगी।इससे वाइल और चार्लसका उपरोक्तका सिध्दान्त सवांशमे ठिक नहि देख पडता क्युकि यदि उण्णतामान अथवा दवावमे विस्तृत प्रमानमे अन्तर किय जाय् थो उपरोक्त नियम ठीक नही उतरता।वायु के भार,क्षेत्रफल तथा तापभान एक दुसरे से निक्षित प्रमाणमे रहना चाहीये।यदि इन तीनोमे अधिक प्रमाणमे अन्तर है तो यह प्रमाण नही रह सकता और इस अन्तर होने का कुछ न कुछ कारण अवश्य होगा।इस विपयमे व्हान नामक विज्ञानवेक्ताने विचार करके दो कारण अवश्य होगा।इस विपयमे व्हान नामक विज्ञानवेक्ताने विचार करके दो कारण बतलाये है।एक तो अणूओके आकर्पणका परिमाण है।यदि इसका ध्यान रखकर समिकरण किया जाय तो वह बदले हुए क्षेत्रफलादिक पर ठिक घटेगा। यह ध्यानमे रखने योन्य बात है कि डाल्टन,चार्लस,वाईल एवागडो तथा व्हानडर चालके उपरोक्त सेध्दान्त तथा विचार-पध्द्ति अणु सिध्द्म्तकी बहुत कुछ पुष्टि करती है। अणे-पुना जिसेमे यह एक गाँव है।जुन्नार के पुर्वकी और २४ मिलकी दुरी पर अणे ही नाम कीएक घाटीके नाके पर यह स्थित है।यहाँ की जनसंख्या लगभग १००० है।यहाँ प्रति बुध्दवारको हाट लगता है। अण्णाजीदक्तो-सिवाजीके आठ प्रधानोमेसे यह भी एक थे।सन्नहवी शताब्दीके आरम्ममे जब हिन्दुराज्यकी नीव डाखनेकी फिरसे कल्पना की जाने लगी थी और जिस समह अनुभवी तथा कार्यकुशल लोगो की कमी भी देख पडती थी,ऐसे ही समहमे शिवाजीके आधिपत्यम कुछ एकानष्ठ,देशभक्त तथा गुखी एकत्रित होने लगे थे।ऐसे ही मनुष्योमे अण्णाजीतादक्तप्रभुणीकर भी थे।यह तईशस्थ ब्राहाण थे और १६४७ ई० मे शिवाजि से आके मिले।यह संगमेश्वर ताल्लुकम पटवारी(देशकुल कर्णपण)के काम पर नियुक्त थे।इनके न तो निजी जीवनका कोइ व्यारा मिलता है।न उसका पुर्व वृतान्त ही उपलब्ध है।जिसे समय अफजलखा का सामना का सामने करनेके लिये शिवाजी १० नवम्बर १६४=ई० को प्रतापगढसेचले थे उस समय संभाजी तथा जिजाईके संरक्षरग-भार के लिये अण्णाजीको वहाँ ही छोड़ दिया था,अएणजी दक्षिण् कोकनसे भली भाँति मिझ थे इस लिये श्रफजलखाँ को पराजित करनेके पश्र्वात् जब शिवाजीने पन्हाला क़िला जीतनेका विचार किया तो इसे श्रागे ही भेज दिया था| इसके बाद स्वयं पहुँचकर २८ नवम्बर १६५९ ई० को शिवाजीने क़िला जीत लिया| शिवजीके पास रहकर समय समय पर अण्णाजी अपने गुणों अण्णजी का परिचय देने लगे| शिवाजीने भी उसके गणित-ज्ञान तथा कार्य-कुशलता पर मुग्ध होकर उसे २९ अगस्त १६६२ ई० को 'वाकनीस' के पदपर नियुक्त किया और पालकी (सवारी) दी| ख़ानगी मामले की देख-रेख, राज्यके कारोबार की देख-भाल,पत्र व्यवहार दफ्तरका कुल काम देखना इत्यादि कार्य उनके आधीन था| भोजन की व्य्वस्था निमन्ण इत्यादि भेजना भी इसीके अन्तर्गत् होता था| इस पदके प्राप्त होनेके पहले ही अएणाजी को ज़मीनकी देख-भाल करना, सम्पूर्ण कर वसू-लेना तथा अन्य राज्यव्यव्स्थाके कार्य करने पड़ते थे| क्योंकि दादाजी कोंडदेव कि मृत्युके पश्चात् इस कार्यके लिये यही समझे जाने लगे|अण्णाजी कर वसूलने की पदति वहीं पुरानी रक्खी और बड़ी कुशलतासे इस कार्य का सम्पादन करते रहे|इन सब कारणों से प्रसन्न होकर शिवाजीने ३ अप्रैल १९९२ ई० को अण्णाजी को सुरनीस अथवा सचिव (मन्त्री) के पदपर विभूशित किया| इस पदपर यह राज्यकी ओर से सब चिठ्ठी पत्रि करते तथा परगनों ओर गाँवके हिसाब किताबके निरीक्षण करते थे| इसीके के पास राज्य की मोहर रहती थी|युद्धादिक प्रसंगपर राजा के हितका ध्यान रखकर विचार करना इत्यादि कर्त्तव्य करने पड़ते थे|यद्य्पि राज्य व्यवस्था इसने अत्युत्तम की थी, किसी कर्मचारी पर विश्वास न करके स्वयं ही गाँव घूमकर साब देख भाल किया करते थे किन्तु युद्ध कार्य में अण्णाजीका विशेष महत्व नहीं देख पड़ता न उनके द्वारा कोई स्वतन्त्र युद्ध ही जीता गया| शिवाजीने ६ जनवरी सन् १९९५ ई० को थान जिलाके कोतवणके मार्ग से जाकर सूरत शहरपर धावा किया था| उस समय अण्णाजी साथ थे|तदनन्तर दक्षिण भारत पर विजयके लिये जो चुने चुने लोग भेजे गये थे उनमें भि यह गये थे| किन्तु इन लड़ाइयोंमें भि इनके विशेष वीरताका उल्लेख नहीं मिलता| केवल हुबली नगरजकी लूटमें अण्णाजीका विवरण मिलता है (१६७३ई०)| हुबली उस समय व्यापार-क्षेत्र क केन्द्र बना हुआ था और ऐसा अनुमान किया जाता है कि सूरतदसे भी अधिक यहाँ लूटका माल मिला होगा| किन्तु यहाँ पर अंग्रेज तथा अन्य विदेशी व्यापारी बसे हुए थे, उनके विवरणसे पता चलता है कि अण्णाजीने शिवाजी को इस लूटका कुछ समाचार ही नहीं दिया| राजपुर की लूटमें क्रूरता दिखलाई गई थी उसके लिये शिवाजीने उन अधिकारियों को दणड दिया था|कदाचित् इसी कारण से अण्णाजीने ऐसा किया होगा|जिस समय १६६६ ई० में शिवाजी देहलीके मुगल बादशाह औरंगज़ेबसे मिलने गये थे उस समय जिन तीन पुरुषोंकेऊपर सम्पूर्ण भार सौंपा गाया था उनमें एक अण्णाजी भी थे| इन लोगोंने ५ मार्च १६६६ से २० नवम्बर १६६६६ ई० तक बड़ी द्क्षता से कार्य संभाला था| इससे प्रसन्न होकर शिवाजी ने इन लोगों को 'राज्यका आधारस्तम्म' की उपाधीसे विभूषित किया था| अण्णाजीका कुल समय कर निश्चित करने, गाँव के झगड़ोंक निपटाना इत्यादिमें ही व्यतीत होता था| लड़ाई में वे बहुत कम भाग लेने पाते थे किन्तु द्क्षिणके युद्धोँमें उन्हें भाग लेना पड़ता था क्योंकि उस ओर से वह विशेषरुप से भिक्ष थे| पन्हालाका किला जो १६५९ ई० में जीता गया था वह बीजापुर वालों ने सन् १६७० ई० में फिर ले लिया था और मराठोंके आधीन प्रदेशोँमें ख़वासखाँ दिन पर दिन अधिक अत्याचार बढ़ाता जाता था|अतः शिवाजीने १६७० ई० में पन्हालेको जो दक्षिण की सरहदका मुख्य स्थान था लेने का निश्च्य किया| तदनुसार शिवजीने अण्णाजी को पन्हाला पर फिरसे अधिकार प्राप्त करने के लिये भेजा और जो प्रतिनिधि बीजापूरमें था वह वापस बुला लिया गया| दो तीन दिन के बाद कुछ गुप्त परामर्श देकर अण्णाजीकी सहायता के लिये कोंडाजी इत्यादिके साथ बहुत से और आदमी भेजे| अण्णाजी पहले ही से डंटे थे, इन लोगों के ५ मार्च १६७३ ई० को पहुँचने पर रात्रिके निबिड़ अन्धकार में क़िले पर इन लोगोंने छापा मारकर चारों ओर हाहाकार मचा दिया| अण्णाजी पिछ्ले भागकी रक्षा के लिये कुछ सेना को लेकर जंगलमें छिपे हुए थे| थोड़ी लड़ाई दूसरे दिवस अर्थात् ६ मार्च को भी हुई किन्तु विजय इन्हीं लोगोंके हाथ रही और किला हस्त्