पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१३८

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चले थे उस समय संभाजी तथा जिजाईके संरक्षरग-भार के लिये अण्णाजीको वहाँ ही छोड़ दिया था,अएणजी दक्षिण् कोकनसे भली भाँति मिझ थे इस लिये श्रफजलखाँ को पराजित करनेके पश्र्वात् जब शिवाजीने पन्हाला क़िला जीतनेका विचार किया तो इसे श्रागे ही भेज दिया था| इसके बाद स्वयं पहुँचकर २८ नवम्बर १६५९ ई० को शिवाजीने क़िला जीत लिया| शिवजीके पास रहकर समय समय पर अण्णाजी अपने गुणों अण्णजी का परिचय देने लगे| शिवाजीने भी उसके गणित-ज्ञान तथा कार्य-कुशलता पर मुग्ध होकर उसे २९ अगस्त १६६२ ई० को 'वाकनीस' के पदपर नियुक्त किया और पालकी (सवारी) दी| ख़ानगी मामले की देख-रेख, राज्यके कारोबार की देख-भाल,पत्र व्यवहार दफ्तरका कुल काम देखना इत्यादि कार्य उनके आधीन था| भोजन की व्य्वस्था निमन्ण इत्यादि भेजना भी इसीके अन्तर्गत् होता था| इस पदके प्राप्त होनेके पहले ही अएणाजी को ज़मीनकी देख-भाल करना, सम्पूर्ण कर वसू-लेना तथा अन्य राज्यव्यव्स्थाके कार्य करने पड़ते थे| क्योंकि दादाजी कोंडदेव कि मृत्युके पश्चात् इस कार्यके लिये यही समझे जाने लगे|अण्णाजी कर वसूलने की पदति वहीं पुरानी रक्खी और बड़ी कुशलतासे इस कार्य का सम्पादन करते रहे|इन सब कारणों से प्रसन्न होकर शिवाजीने ३ अप्रैल १९९२ ई० को अण्णाजी को सुरनीस अथवा सचिव (मन्त्री) के पदपर विभूशित किया| इस पदपर यह राज्यकी ओर से सब चिठ्ठी पत्रि करते तथा परगनों ओर गाँवके हिसाब किताबके निरीक्षण करते थे| इसीके के पास राज्य की मोहर रहती थी|युद्धादिक प्रसंगपर राजा के हितका ध्यान रखकर विचार करना इत्यादि कर्त्तव्य करने पड़ते थे|यद्य्पि राज्य व्यवस्था इसने अत्युत्तम की थी, किसी कर्मचारी पर विश्वास न करके स्वयं ही गाँव घूमकर साब देख भाल किया करते थे किन्तु युद्ध कार्य में अण्णाजीका विशेष महत्व नहीं देख पड़ता न उनके द्वारा कोई स्वतन्त्र युद्ध ही जीता गया| शिवाजीने ६ जनवरी सन् १९९५ ई० को थान जिलाके कोतवणके मार्ग से जाकर सूरत शहरपर धावा किया था| उस समय अण्णाजी साथ थे|तदनन्तर दक्षिण भारत पर विजयके लिये जो चुने चुने लोग भेजे गये थे उनमें भि यह गये थे| किन्तु इन लड़ाइयोंमें भि इनके विशेष वीरताका उल्लेख नहीं मिलता| केवल हुबली नगरजकी लूटमें अण्णाजीका विवरण मिलता है (१६७३ई०)| हुबली उस समय व्यापार-क्षेत्र क केन्द्र बना हुआ था और ऐसा अनुमान किया जाता है कि सूरतदसे भी अधिक यहाँ लूटका माल मिला होगा| किन्तु यहाँ पर अंग्रेज तथा अन्य विदेशी व्यापारी बसे हुए थे, उनके विवरणसे पता चलता है कि अण्णाजीने शिवाजी को इस लूटका कुछ समाचार ही नहीं दिया| राजपुर की लूटमें क्रूरता दिखलाई गई थी उसके लिये शिवाजीने उन अधिकारियों को दणड दिया था|कदाचित् इसी कारण से अण्णाजीने ऐसा किया होगा|जिस समय १६६६ ई० में शिवाजी देहलीके मुगल बादशाह औरंगज़ेबसे मिलने गये थे उस समय जिन तीन पुरुषोंकेऊपर सम्पूर्ण भार सौंपा गाया था उनमें एक अण्णाजी भी थे| इन लोगोंने ५ मार्च १६६६ से २० नवम्बर १६६६६ ई० तक बड़ी द्क्षता से कार्य संभाला था| इससे प्रसन्न होकर शिवाजी ने इन लोगों को 'राज्यका आधारस्तम्म' की उपाधीसे विभूषित किया था| अण्णाजीका कुल समय कर निश्चित करने, गाँव के झगड़ोंक निपटाना इत्यादिमें ही व्यतीत होता था| लड़ाई में वे बहुत कम भाग लेने पाते थे किन्तु द्क्षिणके युद्धोँमें उन्हें भाग लेना पड़ता था क्योंकि उस ओर से वह विशेषरुप से भिक्ष थे| पन्हालाका किला जो १६५९ ई० में जीता गया था वह बीजापुर वालों ने सन् १६७० ई० में फिर ले लिया था और मराठोंके आधीन प्रदेशोँमें ख़वासखाँ दिन पर दिन अधिक अत्याचार बढ़ाता जाता था|अतः शिवाजीने १६७० ई० में पन्हालेको जो दक्षिण की सरहदका मुख्य स्थान था लेने का निश्च्य किया| तदनुसार शिवजीने अण्णाजी को पन्हाला पर फिरसे अधिकार प्राप्त करने के लिये भेजा और जो प्रतिनिधि बीजापूरमें था वह वापस बुला लिया गया| दो तीन दिन के बाद कुछ गुप्त परामर्श देकर अण्णाजीकी सहायता के लिये कोंडाजी इत्यादिके साथ बहुत से और आदमी भेजे| अण्णाजी पहले ही से डंटे थे, इन लोगों के ५ मार्च १६७३ ई० को पहुँचने पर रात्रिके निबिड़ अन्धकार में क़िले पर इन लोगोंने छापा मारकर चारों ओर हाहाकार मचा दिया| अण्णाजी पिछ्ले भागकी रक्षा के लिये कुछ सेना को लेकर जंगलमें छिपे हुए थे| थोड़ी लड़ाई दूसरे दिवस अर्थात् ६ मार्च को भी हुई किन्तु विजय इन्हीं लोगोंके हाथ रही और किला हस्त्गत हो गया।कोंडाजीने यह समचार गुप्तचरों द्वारा शिवाजी के पास भिजवा दिया। शिवाजी के आठ दिन आने तक अण्णाजी वहीं रहे। इस भांति पन्हाला पर दो बार विजय प्राप्त की गई और सत्रहवीं शताबदी के अन्त तक वह मराठोंके ही आधीन रहा। इसी वर्ष शिवाजीके राज्या भिषेकके समय शिवाजीने अपने अष्ट-प्रधानोंको सब काम बाँट दिया| अण्णाजीको चेऊलसे लेकर दामोल तक राजापुर, कुडाल, बाँदा और फोंडा अकोल तक-सारांश समस्त दक्षिण कोंकण की व्यवस्थाका भार सौंपा। इसके अतिरिक्त-व्यवस्था पहलेकी भाँति उसीके आधीन रही। इल्लागिरी ताल्लुके की जमीदारी तथाथ कोल्हापुर इलाके के भूधरगढ़के निकट सामानगढ़ भी अण्णाजी को दे दिया गया था। कहा जाता है कि अण्णाजी ही ने सामानगढ़ बनवाया था। दक्षिण कोकनकी व्यवस्था अण्णाजीके ही हाथमें होने के कारण समुद्रतटकी देख-रेख भी इन्हें ही करनी पड़ती थी।

 इसी कारण योरोपीय व्यापारियोंसे उनका सम्बन्ध सदैव घनिष्ट रहा। वे अण्णाजीको  अण्णाजी पण्डित सूबेदार के नाम से सम्बोधित करते थे। ५ जून १६७४ ई० को जब शिवाजीका राज्यभिषेक हुआ था तब राज्यकी भीतरी व्य्वस्था अण्णाजी ही करते थे। अतएव शिवाजीके शीश पर राजक्षत्र सुशोभित कररने का सम्मान इन्हीं को प्रदान किया गया था। उस अवसर पर उन्हें बादली (वस्त्र विशेष), पोशाक, कराठी, चौकड़ा (बाला) सिरपेंच, कलगी, कटार,ढाल,तलवार, हाथी, घोड़ा आदि देकर गौरान्वित किया गया था।अण्णाजीको पालकी के व्ययके सहित १०,००० होणा (३००० रुपया)ऩगद वेतन मिलता था। अण्णाजी राज के पत्रों पर जो अपनी मुहर करते थे वह अष्ट्कोण, बड़ी तथा लम्बी थी। उसमें निम्न ४ पंक्तियाँ अंकित थी। (९)श्रीशिवचरणी (२)निरन्तर दत्त (३)सुत अनाजिपंत (४)तत्पर । इन चारोंको मिला कर पढ़नेसे अर्थ निकलता हैः श्रीशिवाजी के चरनणोँमें निरन्तरदत्त सुत अनाजिपंत सदा तत्पर ।लेख स्माप्त होने पर और लिफाफेके जोडों पर व्यवहारमें लाई जाने वाली मोहर छोटी तथा गोल थी। उसमें निम्न शब्द अंकित थे(१)नाव धि रे (२)धते (अर्थात् लेखना वधि रेधते) १६७४ ई० में फिर शिवाजीने भूमिनिरी-क्षण प्रारम्भ कर दिया और अण्णाजीके ४ या ५ वर्ष इसी कार्य में बीते थे। इसी बीचमें शिवा-जीने अण्णाजीको मालवे भेजा था। १६७८ ई० में जब शिवाजी स्वयं कर्नाटक गये थे तब इन्हें राज्य-प्रबन्धके लिए छोड़ गये थे। अण्णाजी प्रायः राजगढ़में ही रहते थे। जिस समय में वे गाँवोंके निरीक्षणके लिए बाहर जाते उस समय उनके सहायक सब कामोंको करते थे।
  गाँवोंके कर्मचारी भूमिनिरीक्षणमें अवसर भूल करते थे जिससे राज्यको विशेष धक्का पहुँचता था। इसलिए अण्णाजी स्वयं परिश्रम करके गाँवों में घूमते, भूमिनिरीक्षण करते तथा कर निश्चित करते थे। इस प्रकार राज्यकी आमदनी बढ़गई: भीतरी व्यवस्था सुधर गई और साथ ही साथ अण्णाजीका उत्कर्ष भी खूब हुआ| इस कारण कई बड़े तथा योग्य व्यक्तियों और अण्णजीसे अनबन होगई । कुछ लोगोंने शिवाजी से ज़मीनके लगान और गावोंके झगड़ोंका निपटारा स्वयं करनेके लिए प्रार्थना की| परिणाम यह हुआ सब भूमिके फिरसे निरीक्षणकी आझ शिवजीने दी। उसीके अनुसार शिवाजीके राज्या भिषेषके बाद भूमि.निरीक्षण प्रारम्भ हुआ। इस बार भी दादाजी की ही कर. पद्धति स्वीकृत हुई परन्तु ऋतु परिवर्तनसे थोड़ा बहुत सिकुड़ने वाले रस्सीके स्थान पर राजाके हाथसे ५ हाथ ५ मूठ लम्बी लाठी लम्बाई नापनेके लिए प्रयुक्त की जाने लगी। शिवाजीके आजानु बाहु तथा राजा होने के कारण कोई भी इस नापके विरुद्ध आवाज न उठा सका । उपजका ६ भाग कर नियत किया गया था, किन्तु कर अन्नके रूपमें न लेकर नगद सिक्कों में ही लिया जाता था। इस समय जा कर निश्चित किया गया था वह स्थायी था। ऊसर भूमि पर भी कर लगाये जानेके कारण लोग उसे भी खाद देकर उपजाऊ बनानेका यत्न करने लगे। निर्जन स्थानों पर नये लोग बसाये गये । उन्हें बोनेके लिए बीज, मवेशी और धन दो वर्ष की मुद्दत पर देकर ज़मीन उपजाऊ बनानेका प्रयत्न किया गया। दुर्भिक्षमें भी धन और मवेशी दिये जानेके कारण स्थायी-कर-पद्धतिके प्रतिकूल कोई न था। कर नियत करते समय अण्णाजी ने विभिन्न गावोंको जो आञा-पत्र दिये थे उनसे बात होता है कि पहिले कर मुनीम तथा गाँवके अन्य अधिकारी पिछले दो वर्ष की उपज पर तथा गाँव्के बड़े आदमियों की सम्मतिसेही निश्चित किया गया गया था। इस कार्यमें गाँव के मुख्य लोग भी सहायता करते थे। इस प्रकार कर नियत किये जाने पर