पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१४०

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राव दुष्टप्रकृति वाली सोयरा बाईका कभी भी साथ न देगा। अतः बिना उसकी सम्मतिके फेर में पड़े हुए ही सोयरा बाईकी सहायतासे तथा अपनी बुद्धि तथा बल पर आवश्यक्तासे अधिक भरोसा करके राजाराम रूपी कठपुतलीको आगे करके राज्यसूत्रको अपने हाथमें ही रखनेकी महत्वकांक्षा अण्णाजीने धारण की। फल यह हुआ कि सब मन्त्री तथा प्रधान इसको शंकाकी द्दष्टिसे देखने लगे । मोरोपंत और जनार्दन पंत तो पहले ही से उसके विरुद्ध थे। अब हम्बीरराव भी अण्णाजीके आचरण को अपमानकारक समझकर क्रुद्ध हुए। सेना तथा प्रजा हम्बीर रावका साथ देनेको तय्यार थी। ऐसी दशामें जनर्धन पंत तत्काल ही अण्णाजीके विरुद्ध संभाजीसे जा मिला। हम्बीर प्रल्हाद पंतको कराड़के मार्गसे जाकर रास्तेमें गिरफ्तार कर लिया और संभाजीके पास ले गया। अनन्तर हम्बीर राव ने समस्त सेना एकत्र करके संभाजीको राज्य दिलाया। जून महीने में संभाजी रायगढ़ आया और राजा बन बैठा। उसने सोयराबाईको प्रण दंड दिया और राजारामको कैद कर लिया। इस प्रकार अण्णाजीका षडयंत्र विफल हुआ। चार या पांच महीने बाद अर्थात् सितंबर मासमें संभाजी ने अण्णाजीको कैदसे मुक्त कर दिया और उसे मजमूहीके उच्च पद पर नियुक्त कर दिया। अण्णाजी ने अपने किए हुए पापके लिये पश्चात्ताप करना छोड़ दिया और वह संभाजी द्वारा किए हुए अपने अपमानका बदला लेने पर उतारु हुआ। औरंगजेबका पुत्र अकबर जिस समय संभाजीके पास शरण माँगने के लिये आया; उस समय अण्णाजी ने शिरके लोगोंको उभाड़कर उसके साथ संभजीके विरुद्ध षड़यंत्र रचना चाहा। अकबर ने डरके मारे संभाजीसे षड़यंत्रका सब हाल कह सुनाया। उसे सुनकर संभाजीसे षड़यंत्रका सब हाल कह सुनाया। उसे सुनकर संभाजी नाश करा डाला। अण्णाजी और दूसरे षड्यंत्रकारियोंको पटलीके नीचे कैद करके हाथीके पैरोंके तले रौंदनेका दंड दिया। इस प्रकार इस पुरुषका अगस्त सन् १६८२ में अन्त हुआ। किन्तु उसके षडयंत्रोंका दुष्परिणाम उसके पीछे मराठों और महाराष्ट्र देशको सदाके लिये भुगतना पड़ा।

 कहनेका तात्पर्य यह है कि शिवजी के समय जो धार्मिक जागृति हुई थी, वह स्वराज्य प्रेम या राष्ट्रीय भावनासे दस गुनीस भी अधिक थी। औरंगजेब की दक्षिणकी चढ़ाईके बाद अर्थात् शिवाजीके समयमें हिन्दू मुसलमानोँमें अधिक वैमनस्य उत्पन्न हो चुका था । जिस प्रकार अंग्रेज़ों के आधीन बड़े बड़े ओहदों पर रहनेमें अब भी लोग संतोष मानते हैं; उसी प्रकार उस समय भी मुसलमानोंके आधीन किसी पदपर रहनेमें लोगों को बड़े गौरवका अनुभव होता था। जिस समय सेव-धर्म ही सर्व-प्रधान कर्त्तव्य समझा जाने लगे उस समय अपने धर्मके लिये स्वार्थत्याग करना तथा अपने देशके लिये प्राणोंको निछावर करना संभव नहीं होता। अष्टप्रधानोंके लम्बे लम्बे वेतन और अनुचित ऊपरी आमदनीका ध्यान करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उस समय योग्य से योग्य मनुष्य भी धनकी सहयतासे कठ-पुतली की भांति नचाये जा सकते थे। औरंगजेब सा शत्रु हिन्दू राज्योंको धूलमे> मिलानेके लिये उद्दत देखते हुए भी शुर संभाजीके विरुद्ध षडयंत्र रच कर तथा राजाराम रूपी कठपुतकलीको लोगोंके साम्ने रखकर शासनाधिकार अपने हाथोँमें लेने की इच्छा करने वाले आण्णाजी का आचरण केवल आश्चर्यजनक ही नहीं, बल्कि घृणित भी है। शिवाजीके आधीन काम किये हुए अनुभवी और कार्य-द्क्ष समझे जाने वाले अण्णाजी भी अपनी नीच करतूतोंको जाहिर हो जाना देखकर भी उनके लिये खेद और पश्चात्ताप न प्रकट कर सके, उलटे राज्य नाश करनेके लिये ही कटि ब़द्ध हुए। इस कारण प्रत्येक मनुष्य अण्णाजी को तिरस्कार की द्दष्टि से ही दिखेगा। लेकिन उस समयकी यही दशा थी कि नेता स्वार्थ तथा स्वामि-भक्तिको छोड़कर और कोई तीसरी बात जानते ही न थे। इन सबका यह फल हुआ कि अण्णजी वाले षड़यंत्रमें फँसे हुए प्रधानों परसे संभाजी का विश्वास उठ गया। उनमेंसे कितने ही मार डाले गये और जो बचे उनका भी नाम निशान न रहा। इस प्रकार महाराष्ट्र देश की सारी योग्यता तथा कार्य पटुता इस जीवन मरण के समय नष्ट हो गई और संभाजी ऐसे वीर के लिये भी अच्छे तथा अनुभवी राजनीतिज्ञोंके आभावमें स्वधर्म तथा राज्यकी रक्षा करना असंभव सा होगयाथा। चारो और मनोमालिन्य ही दिखलाई देता था। शिवाजी तथा उनके वीर अनुयायियोंने अपने रक्त की नदियँ बहा कर,दिनरात अदम्य उत्साह तथा कठोर परिश्रम से जो राज्य स्थापित किया था वह अण्णाजी की स्वार्थप्रियता और ह्ठवादिताके