पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१४६

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दशाए- द्रवरूप, घनरूप, वायुरूप है उसी भॉति यह भी चौथी दशा है। अब यह प्रश्न उठता है कि यह किस भॉति प्रमाणित किया जाय कि ॠणध्रुव से निकले हुए परमाणुओं में गति होती है। एक तो वातरहित नली में किसी प्रकार की चक्र रचना करके उसमें विद्युत प्रवाह छोड़ने पर उन चक्रों के घुमने से यह प्रश्न हल हो जाता है, दूसरे यदि इन किरणों के निकट घोड़े की नाल के आकार का चुम्बक लौह लगाया जाय तो यह अपने सीधे मार्ग से च्युत हो जाते हैं। इससे केवल यहीं नहीं सिद्ध होता कि इन किरणों के परमाणु विद्युतपूर्ण है बल्कि यह भी प्रमाणित हो जाता है कि ये ॠण-विद्युत्पूर्ण भी है। इसमें धन(Positive) विद्युत्पूर्ण परमाणुओं का अधिक होना संभव नहीं मालूम होता। इससे यह स्पष्ट है कि चाहे कारण जो भी हो किन्तु वातरहित नली में ॠण विद्युत् किरण धन विद्युत् किरणों की अपेक्षा बहुत अधिक चपल होती है। इसकी गति भी अति तीव्र होती है और गति के कारण ही जितनी दूर चाहे ये जा सकते हैं। इसी भॉति इसके विपरीत विद्युत्भारयुक्त कणों से संयोग होने पर वे नष्ट भी हो जाते हैं। प्रो॰ टौनसेंड के मतानुसार इनकी वाहकता धूलरहित हवा में अत्यंत स्थायी होती है क्योंकि हवा में यदि धूल के कण होते हैं तो वे बराबर विद्युत भार लेते-देते रहते है। और कुछ अपने में एकत्रित भी करते जाते है। यदि हवा में धूल के कण बिल्कुल नहीं होते तो वाहक शक्ति के नष्ट होने में बहुत समय लगता है। इससे यह पता लगता है कि ये चरपरमाणु बहुत ही सूक्ष्म होते हैं। जिससे एक-दूसरे पर शायद ही आघात होता होगा। आकार में यह जितने ही छोटे होते उतने एक-दूसरे से कम टकराते हैं। वायु की अणु की चपलता या प्रसरणशक्ति उसके परमाणुओं के आकार और उनके स्वतंत्र मार्ग पर बहुत कुछ निर्भर रहती है। विद्युतविश्लेषण के जो चपल परमाणु होते हैं वे द्रव्यपरमाणु नहीं होते और इनका विद्युत्भार भी द्रव्यपरमाणु से भिन्न होता है। द्रव्यपरमाणुओं का बोझ नष्ट हो जाने से उसे जितने वेग से चाहे घुमा सकते हैं। विद्युन्मार्ग की विद्युत्शक्ति का भी उसपर परिणाम होता ही है। इससे स्पष्ट है कि विद्युत्भार द्रव्यपरमाणु से अलग और अकेला भी रह सकता है। यह एक परमाणु से दूसरे परमाणु तक जाते समय कुछ काल तक तो अपना स्वतंत्र अस्तित्व भी रखता है। इस क्षणिक स्वतंत्रता के वातरहित अवकाश में एक विद्युत्भार का विजातीय विद्युतभार से मिलकर नष्ट हो जाना संभव है। उसी भॉति सदा के लिये अलग होकर जिधर चाहे उधर चला जाना भी संभव है। इस प्रकार के स्वतंत्र विद्युत्भारों को अर्थात् एकाकी परमाणु से अलग हुए विद्युत्भार को अति परमाणुविद्युत्कण कहते हैं। यदि उन चपल कणों की ओर जिनसे ॠण-ध्रुव किरणें बनी हैं ध्यान दिया जाय तो ऐसा भास होने लगता है कि वे प्राय: अति परिमाणु-विद्युत् कण ही होंगे क्योंकि उनमें विलक्षण चपलता, अत्यंत वेग तथा फैलने की अगाधशक्ति इत्यादि सभी गुण होते हैं। यद्यपि उनका समावेश किसी भी द्रव्य में न किया जा सके तब भी यह कदापि नहीं कहा जा सकता कि वे द्रव्यों के गुण से बिल्कुल ही विहीन हैं । द्रव्यपरमाणु की भॉति उनमें जड़त्व तथा भ्रमकत्व दोनों ही है और इसी कारण से निर्बातनली में तैयार की हुई चक्र योजना को घुमाते हैं। इसी भॉति उनके अंग में अति विशिष्ट शक्ति है। यही कारण है कि उसके मार्ग में स्थित प्लेटीनम का टुकड़ा तप जाता है और जिस समय अति वेग से घूमता है यदि उसमें अवरोध न किया जाय तो उसका प्रकाश पड़ने लगता है। अथवा उससे भी अधिक उच्चकोटि का किरणविसर्जन (क्ष-किरण) होने लगता है। विद्युत्तत्वों की भॉति क्ष-किरण के इस धर्म से कुछ निश्चित बातों का पता चलता है। विद्युत् प्रवाह के लिये (Positive) धनविद्युत्-परमाणुओं की ही आवश्यकता होती है, क्योंकि ॠण विद्युत् परमाणु चाहे कितने भी हो उनका कुछ भी उपयोग नहीं होता। किन्तु वे बराबर उत्पन्न होते रहते हैं और कभी समाप्त नहीं होते। ॠण विद्युत्करणों की अधिकता के कारण निर्बात नली में जो कुछ हवा शेष रहती है उसका विश्लेषण होने लग जाता है और उस विश्लेषण से धन-विद्युत् अणु उत्पन्न होते हैं। ये घन विद्युत्अणु ॠण-धुव से उत्पन्न होने वाली ॠण-विद्युतकणों की अधिकता होते हुए भी ॠण-ध्रुव की ओर ही अग्रसर होते हैं। अन्त में उन्हीं से जाकर टकराने के कारण नये विद्युत्कण उत्पन्न होते हैं। ऐसा अनुमान किया जाता है कि जिस स्थान पर यह विश्लेषण हुआ करता है ॠण-ध्रुव का वही भाग प्रकाशित रहता है। जिस बेग से यह आगे फेंके जाते हैं उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उनपर बहुत अधिक विद्युत्भार होता है। इनकी भेदन शक्ति अगाध है तथा विलक्षण