पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१४७

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होती है। ऐसे धातु पत्रों को भेदकर भी ये चले जाते हैं जो हमलोगों को छिद्ररहित देख पड़ते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि उनका आकार बहुत ही छोटा होगा। (२) ॠण-ध्रुव किरणों की गति तथा विद्युत रासायनिक समूल-जब अतिपरिमाणु विद्युत्कणों के गति की ओर ध्यान देते हैं तो यह कल्पना कि ॠण-ध्रवु किरणें परमाणुओं से बनी होंगी, बिल्कुल ही छोड़ देनी पड़ती है। क्योंकि उनकी गति प्रति सेकण्ड 10 हजार मील अथवा कम से कम प्रकाश की गति का दशांश तो होती हैं। यदि यह सेंटीमीटर ग्राम पद्धति से निकाली जावे तो वह 10 होती है और विद्युत्रासायनिक सममूल 10 होता है। इसके प्रमाण के लिए उज्जवायु (Hydrogen) माना गया है। निर्वात्नली का वायु कोई भी हो अन्यथा विद्युत्मार्ग किसी भी प्रकार का हो उसमें अन्तर नहीं पड़ेगा ॠण-ध्रुव किरणों की गति दो विद्युन्मार्गों की संभ्भाव्य शक्ति के अन्तर तथा नली के निर्वातता पर ही अवलम्बित रहती है। ॠण-ध्रुव किरणें जिन कणों से बनी हुई है, उनकी गति चाहे कितनी ही विलक्षण हो तो भी शक्ति उनकी साधारण ही रहेगी और उनका सम्पूर्ण पिराड बहुत कम होगा। किन्तु उनका कुल विद्युत्भार विलक्षण तथा बहुत अधिक होता है क्योंकि 15 माइक्रोफॅरेड ( micro-farad ) की ग्राहकता 1 सेकेण्ड में 5 वोल्ट तक वे बढ़तो हैं। 4 मिली ग्राम जल के बराबर है, उसकी उष्णता दो अंशों में बढ़ते हैं। किन्तु इनका पिण्ड इतना छोटा होता कि 10 मिली ग्राम एकत्रित करने में 100 वर्ष लग जायेंगे। उनकी गति बन्दूक से छूटी हुई गोली की गति से लाख गुना से भी अधिक है। यदि इन किरणों का द्रव्य में समावेश किया जाय तो द्रव्यों मे भी इनकी गति सबसे अधिक है। अब यदि यह कहा जाय कि इन ॠण-ध्रुव किरणों के कणपरमाणु है तो कम से कम यह भी मान लेना पड़ता है कि उनके ऊपर का विद्युत्भार बहुत अधिक है। किन्तु इन गतिमान कणों का विद्युत्भार तथा विश्लेषण में मिले हुए परमाणुओं का विद्युत्भार समान ही है। यदि यह मान लिया जाय कि ये परमाणु हैं तो उनका पिंड भी विश्लेषण में मिले हुए परमाणु पिण्ड की अपेक्षा सहस्त्रांश में छोटा होना चाहिए। ऐसा निश्चित हो जाने पर ॠण-धुव से निकलने वाले कणों की कल्पना दो ही भिन्न प्रकारों से की जा सकती है। यातो वे उपरोक्त कल्पित अति परमाणु विद्युत्कण होंगे अथवा वे किसी भिन्न ही प्रकार के विद्युत्परमाणु होंगे। (३) उपनील लोहित किरणों के योग से होनेवाला विद्युत्स्त्राव-यदि किसी ॠण-विद्युत्पूर्ण भाग पर उपनील लौहित किरणें चाहे वे किसी प्रकाश स्थान से आई हुई हों-गिराई जाय तो उस भाग में से विद्युत्द्वार धीरे-धीरे लुप्त होने लगता है यदि उस भाग के जितने समीप लोह-चुम्बक लाया जाय तो लोह चुम्बक की शक्ति रेखायें (lines of force) जिस दिशा से जाती हों उस परिमाण से उनमें अन्तर होता है। यह स्त्राव कणों के स्वत: बाहर निकल जाने से ही होता है। ॠण-ध्रुव किरणों में जिस प्रकार विद्युत्कण स्वयं ही घूमते रहते हैं, उसी प्रकार उपनील लोहित प्रकाश के कारण ये इस भाग से स्वयं ही जाने लगते हैं। यह दृश्य देखने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि प्रदेश निर्बात ही हों; पर निर्वात प्रदेश में यह दृश्य अधिक अच्छी तरह दिखाई पड़ता है, वस्तुत: अणु में बिना गति आरम्भ हुए यह स्त्राव संभव नहीं है। उपनील लोहित किरणों के समकालिक आन्दोलनों के योग से ही इस आन्दोलन (चंचलता) का प्रादुर्भाव होता है। अणु में आन्दोलन आरम्भ होने पर उनका ॠण विद्युत्द्वार उनसे अधिक शिथिल होता है और वे वहा से दूर होने लगते हैं। इसके अतिरिक्त किरणों के संयोग से कुछ अंश में धन-विद्युत् भी उत्पन्न होने लगती है। इस धन-विद्युत् की उत्पत्ति के योग से जी परिणाम होता है केवल वहीं धातु के उष्णुताप मान पर अब लम्बित रहता है। जे॰ जे॰ थाम्सन नामक विज्ञान वेत्ता ने इस स्त्राव की गणना के लिये कई प्रयोग किये उन प्रयोगों से पता लगा है कि लोह-चुम्बक के संसर्ग से धातु के पात्र में छोड़ने पर इन कणों के घूमने का जो मार्ग है वह चक्राभास है। और चक्राभास का प्रमाण (सूत्र) ण व (णत्रपिण्ड और वत्रविद्युत्भार) हैं। अर्थात् उस कण के पिण्ड तथा उस पर रहने वाले विद्युत्भार दोनों के भागाकार के अनुसार ही उस चक्राभास के अदृश्य होने के कारण उन्हें प्रत्यक्ष देखना अत्यंत दुर्लभ है। केवल उसकी कल्पना भर की जा सकती है। मान लीजिये कि किी धातु के पत्र से यह कण निकल रहे हैं और यदि उस पत्र के निकट किसी दूसरे