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अति परमाणु विध्युत़कण

हुआ यह भी जाना जा सकता है कि कितने जल की कितनी बूँदें हुई। उसी प्रकार ये भी पता लगाया जा सकता है कि उनके गाढ़ीकरण में काम आने वाले मध्य बिन्दु अर्थात विध्युत्कण कितने हैं। एक घन सेन्टीमीटर मे इस प्रकार की ३०००० बुंदे गिनी गई है। और जितनी बूंदे होती हैं उतने ही मध्य बिन्दु होते हैं जिसने मध्यबिंदुओं की संख्या गिनी गई।

   इस प्रयोग के कारण जब मध्यबिन्दुओं की स्ंख्या विदित हो जाती है तो उसका प्रमाण सूत्र से निकाला जासकता है कि केवल पिण्ड का मूल्य और उस पिण्ड के विद्धुत्भार का मूल्य कितना होगा।
    स्थिर विध्युत़्मानके प्रमाणसे गणना की जाय तो विद्धुत्भार (३ x १०) १० होता है, और यदि विध्युत्चुम्बकीय् मूलमानके प्रमाणसे गणना की जाय तो १० होता है। पिण्ड का जो मूल्य इस भांती आवेगा वही घनविध्युत्वाहक अथवा विध्युदणु का होगा और वह परमाणुके वास्तविक पिणड का मूल्य प्रदर्शित करेगा। किन्तु यदि इस मूल्य की अपेक्षा अधिक मूल्य निकाले तो यह कहना पडेगा कि एकसे अधिक परमाणु एक ही स्थान पर एकत्रित हुए हैं। ऋणविद्धुध्वाहक अथवा विध्यत्कण्के  विध्युद्भार और पिण्डके प्रमाण का

मूल्य (१०)७ है और उनके पिण्डके मूल्य (१०)२७ ग्राम है यह सबसे हल्के उज्ज ( Hydrogen) के परमाणु का १/७०० वाँ भाग है।इस भांति प्रयोग यह सिद्ध है कि परमाणु से भी छोटे पिण्डों का अस्तित्व है। इसके सिद्ध होने के योग से विग्यानशास्त्र के इस विभाग मे एक नये युग का आरम्भ हो गया।

    (९) अतिपरमाणु विध्युत्करण का विध्युत्भार- एच० ए० विलसन नामक विग्यानवेत्ताने त्रिश्ंकूके प्रयोग से इस विध्युत्भार का मूल्य निकाला। वह प्रयोग इस तरह 

है कि हवा मे से नीचे गिरते समय द्रवित भाप के बिन्दु को त्रिशंकू की भांति बीचोबीच लटका रखने के लिए जितनी विध्युत् शक्ति की आवश्यकता पडेगी उसको निकाला।फिर उस बिन्दु का वज़न और विध्युच्छक्ति का समीकरण किया गया और उसका मूल्य निकाला। यदि 'य' उस बिन्दु का वजन हो और 'इ' विध्युत्क्षेत्र की शक्ति और 'प' उस बिन्दु मध्यमे रहनेवाले मध्यबिन्दु का भार हो तो उनका समीकरण य=इ x च, किय जावेगा। इस समीकरणमे 'इ' अर्थात् विध्यत्क्षेत्र का मूल्य, और 'म' उस बिन्दु के वजन का मूल्य होने से, व अर्थात् विध्यत्भार निकाला जासकता है। इस प्रयोग-द्वरा प्राप्त विध्युत्भार का मूल्य( ३.१ x १०)-१० था। गतिमापन की सहायतासे थामसन द्वारा निकाला हुआ मूल्य (३.४x१०)-१० था।

    आकार-ये इधर उधर घूमने वाले द्र्व्य कण है और यह सिद्धान्त मान कर चलें कि उन पर भी कुछ विध्युत्भार है तो इस कण की द्र्व्य तथा विध्युत् दोनों की ही रचना सिद्ध होती है। मतलब यह कि उस को जितनी जडता प्राप्त हो वह भी इन्हीं दोनों

कारणों पर निर्भर होनी चाहिये। इस प्रकार की दोहरी कल्पनाके कारण गति का होना कठिन होने लगा। किन्तू उसके बदले मे यह कल्पना की जाय कि ये घूमने वाले कण विध्युत्कणके अतिरिक्त और कुछ नही है उन्हीं पर विध्युत्भार है और वे ही परमाणुओंके घटक है किन्तु उन्हें किसी द्र्व्य के मध्यबिन्दु (Material Nucleus) की आवश्यकता नहीं है तो यह क्ल्पना प्रगति के मार्ग मे बाधक नहीं होगी।