पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१७०

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पता लगता है की सहिंता बनाने वालों का विशेष ध्यान वहां रचना और ऋचाओं की संख्या पर था| किन्तु भीतरही विपय की रचना में भी उन लोगों ने लापरवाही नहीं की है| एक ही विपयके दो तीन चार या इससे भी अधिक सुत्तक अधिकतर एकहि स्तान में मिलेगी| कोड के आरम्भ में विशिय सुत्तक को पहला स्तान देने का कारण उस सुत्तक में बरिंत विपय हो सकता है| उदाहरण के लिए दूसरे चौथे पांचवे और सातवे कोड़ों के आरम्भ में गृहविधा सम्बन्धी सुत्तक दिए गए हैं|तेरहसे लेकर अठारवे कोड में हर एक में एक एक स्वतंत्र विपय का निर्देश है| चौदहवे कोड में केवल 'विवाह' सम्बन्धी वचन है| अठारवे में तोह केवल 'अन्त्य विधि' के संभंध में ऋचाएं है| इससे हमारा उपर्युक्त कथन स्पष्ट हो जायेगा| अथरवा वेद के सुत्तकों की भाषा प्रधानतः ऋग्वेद सहिता के जैसी ही है| फिर भी अथरवा वेद में कुछ बातैं निस्संदेह रिग वेदा काल के पश्चात की हैं| इसकी भाषा में जांशधाररायकी भाषा के शब्द और प्रयोग ऋग्वेदा की अपेक्षा अधिक दिखाई देते हैं| इसके अलावा यह भी मालूम होता है की वेद में ऋग्वेदा की तरह बृत्तांकी और बारीकी से ध्यान नहीं दिया गया है| यह कह चुके हैं की पंदरवाह पूरा और सोलहवे का अधिकांश भाग गधात्मक है| इसके अलावा और और कोड़ों मैं भी बीच बीच में गध्य भाग आया है| कई स्तानो पर यह निर्णय लेना कठिन हो जाता है अमुख भाग गद्य है या पद्य | कहीं कहीं यह भी दिखाई देता है की असली सुत्तक निर्दोष है किन्तु वह प्रदोप अथवा विदोप के कारण भांग हो गया है| कहीं कहीं भाषा और सुत्तक को देखने से साफ़ मालूम हो जाता है की यह प्राचीन नहीं है |फिर भी यहाँ केवल भाषा और सत्ताके आधार पर सुत्तकों का समय निर्णय नहीं किया जा सकता| इसी वजह से सहिताका भी समय निर्णय नहीं हो सकता है| ऋग्वेद और अथरवावेद मन्त्रों में जो अंतर है वोह अथर्ववेद की भाषा की विभिन्नता और सुत्तकोंकी की स्वतंत्रता है| अथर्ववेद साहित्य के समय -अब कुछ ऐसे प्रमाण प्राप्त हुए हैं जिनके बल पर यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि अथरवावेद साहिता काल ऋग्वेदा सहिता के काल के प्रश्चात है | पहला प्रमास है ऋग्वेदा और अथर्ववेदा भौगोलिक ज्ञान तथा उनकी संस्कृति| इन दो बातों के मिलने से स्पष्ट हो जाता है कि अथर्ववेद सहितका समय ऋग्वेद सहिता के बाद आता है| उस समय आर्य लोग बढ़ते बढ़ते गंगा नदी के पास पहुँच गए थे| बंगाल के दालदाल में रहने वाला शेर ऋग्वेदा में नहीं मिलता| किन्तु अथरवावेद मैं उसका वर्णन पाया जाता है| वह हिंसक पशुओं मैं सबसे वाली और भय उत्पक्ष करनेवाला है तथा राज्याभिषेक के समय राजाके पररिणम्को व्यक्त करने के लिए उसका चर्म राजा के पैर के नीचे फैलाया जाता है और राजा उस पर अपने पैर रखता है अथरवावेद के समय ग्याहरा डिट्रिया, यैष और शुद्ध चार वर्ण थे| केवल यही नहीं बल्कि भ्रमहलोगों को उच्च स्तान दिया गया है और वह भूदेव कहे गए हैं| ऋग्वेद कि अभिचार ऋचाओं के बिपयों को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि वे बहुत प्राचीन और सर्वसाधारण में प्रचलित थीं| परन्तु अथरवावेद संहितों में उन्हें भ्रम्हणिपुट दिया गया है| और और पेशों के लोगों को जिस तरह उनके अभिचार मंत्र , मोहन मंत्र साधारणतः लोगों में प्रचलित रहते हैं उसी तरह अथर्ववेद के समय भी थे किन्तु इसी वेद के संहिता काल में वे साधारण जनता की पहुँच के बहार जा चुके थे| वाचक पद पद पर देखेंगे की यह संग्रह ब्रम्हाणरों द्वारा हुआ है और बहुत से सत्तक भी ब्रम्हाणरों द्वारा ही रचे हुए हैं|विशेश्यों और उपमाओं के प्रयोग मैं अथरवावेद सुत्तकों का संग्रह करने वाला और लेखकों में यही 'ब्रम्हाण्री' दृष्टि साफ़ दिखाई देती है| उदाहरण यों है क्षेत्र (श्रत) कृमी (कीड़ों) के चिरन्द्र जो मंत्र है उसमे कहा गया है की जिस तरह ग्रहण संस्कार द्वारा बिना शुद्ध किये हुए उनको छू नहीं सकता उसी प्रकार शेत्र कृमभी शेत्र (खेत) के अन्नाको न छुए| अथरवावेद सुत्तके एक भाग में लिखा है की ग्रहणोंको भोजन करना चाहिए | यह भ्रम्हाण्रो के लाभ की बात है | श्रतः इसमें संदेह नहीं की इस भाग की रचना ब्रम्हाण्ओ द्वारा ही हुयी है | जिस तरह पुराने श्रमिचार मंत्रो को गायकी के स्वरुप प्राप्त होना पश्चात काल का निर्देशक है उसी तरह अथर्ववेद में वैदिक देवताओं की कृतियों का वर्णन भी यही स्पष्ट करता है की यह संहिता ऋग्वेदा संहिता बाद तेयार हुयी| ऋग्वेदा के अग्नि इंद्रा आदि देवता इस वेद में भी हैं परन्तु उनकी विशेषता जैसी की तैसी बानी हुयी है| ऋग्वेदा में वे प्राकृतिक मूल-स्वरुप माने गए हैं और वही उनका महत्व था, पर इस वेद (अथर्व) में यह महत्व