पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१७५

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अथर्ववेद ज्ञानकोष (अ) १६१ अथर्ववेद के रोकनेके संबंध है। इसमें रक्त वाहिनी जमा है। उन सबका दुखदायी कीड़ोकी तरह नाडियोको रक्तांबरधारी कुमारियोंके नामसे नाश हो ॥१॥ संबोधित किया है। जो सात और सत्तर ( कंठमाला) प्रैव्या श्रमूर्या यन्ति योषितो हिरा लोहितवाससः। नाड़ी पर एकत्रित हैं उनका अपचित् कीड़ोंकी अभ्रातर इय जामयस्तिष्ठन्तु हतवर्चसः॥१॥ तरह नाश हो ॥२॥ तिष्ठावरे तिष्ट पर उत त्वं तिष्ठ मध्यमे । जो नौ और नब्वे कन्धोंके अगल-बगल जमी कनिष्ठिका च तिष्ठति तिष्टादिद्धमनिर्मही ॥२॥ हैं उनका भी कीड़ोंकी तरह नाश हो। शतस्य धमनीनां सहस्रस्य हिराणाम् । यह कल्पना बहुत पुरानी है कि बहुतसे रोग अस्थुरिन्मध्यमा इमा साकमन्ता अरंसत् ॥३॥ जन्तुओं (कीड़ों)से उत्पन्न होते हैं। इसी लिये परिवःसिकतावती धनू हत्यक्रिमीत् । अथर्ववेद में सब तरहके जन्तुओका अपसरण तिष्ठतेलयता सु कम् ॥ ४॥ (नाश ) करने के लिये एक मन्त्रोंकी मालिका ही __ अथर्व० १, १७. तयार की गयी है। ये रक्त वस्त्र (लाल वस्त्र) पहन कर जाने- अन्वान्त्र्य शीर्षण्य रमथो पाप्यं क्रिमीन् । वाली रक्त वाहिनी कुमारियाँ, जिनको भाई न हो अवस्कवं व्यध्वरं क्रिमीन् वचसा जम्भयामसि ॥४॥ ऐसी बहनोके समान बलहीन होकर अपनीही । ये क्रिमयः पर्वतेषु वनेष्वोषधीषु पशुप्वप्स जगह पर चुपचाप खड़ी रहे ॥१॥ २न्तः। ये अस्माकं तन्वमाविविशुः सर्व तद्धन्मि निम्न भागमें बहनेवाली धमनी ! तू ठहर जा: जनिम क्रिमीणाम् ॥ ५॥ ऐ ऊपरवाली तू भी ठहर जा; मध्यमें बहनेवाली अथर्व० २.३१. तू भी ठहर । सबसे छोटी धमनी तो रुकही अंतड़ियोंमे सिरमें और पाणों में रहनेवाले गयी। अब बड़ीभी ठहर जाय ॥२॥ कीडोका, भीतर घुसनेवाले कीड़ों (अवस्का) सौ धमनियों और हजार रक्तवाहिनी शिरा और अन्य मार्गोंसे भीतर जानेवाले कीड़ों (व्य- ओंकी नाड़ियाँ बन्दहो गई और बाकी रुधिर- ध्वर) का मैं इस मंत्र द्वारा नाश करता हूँ ॥४॥ स्तंभन ( रोकनेवाली ) धमनियोंके साथ खेलने जो कीड़े पहाड़, जंगल, वनस्पति, पशु और लग गयीं (अर्थात उन्होंने भी रक्त स्राव बंद जलमें घुसे हुए हैं और वहाँ से हमारे शरीर कर दिया ॥३॥ में घुस गए हैं, उन सबको जड़ही मैं खोद ये ऋचाएँ सदा काव्यमयही नहीं होती; अक्- डालता हूँ॥५॥ सर एक सुरी (बारबार वही बात कहनेवाली) मालुम होता है उस समय इन रोग उत्पन्न होती हैं। इनमें हर एक ऋचामें काव्यका इतनाही करनेवाले जन्तुओंके विषयमें लोगोंकी ये भाव- रूप झलकता है कि वही वही शब्द उन्हीं उन्हीं नाएं थीं कि ये जंतु असुर (मनुष्येतर ) हैं, इनमें वाक्योंका पुनरुच्चार (बारबार उल्लेख) होता भी राजा, प्रधान आदि अधिकारी हैं, इनमें स्त्री- है। प्रारंभिक दशामें जैसी कविताएँ होती हैं उसी पुरुष श्रादि भेद हैं, इनके अलग अलग रंग हैं। प्रकारकी ये ऋचाएँ हैं। यही उनमें समानता है। वे अनेक रूप धारण कर सकते हैं। इसका अन्यके मंत्रोंसे अथर्ववेदके मंत्रोका साम्य औरभी उदाहरण अथर्ववेदके ५ वे कांडके २३ वें सूक्त में है । वह यों है कि अक्सर इनका अर्थ जानबूझ- हैं। इस सूक्तमें अत्यंत सूक्ष्म रोग-जंतुके प्रति- कर गूढ़ और दुर्गम रखा जाता है। ऐसीही एक गूढ़ ऋचाका एक उदाहरण अथर्व. ६.२५ में है। अस्येन्द्र कुमारस्य क्रिमीन् धनपते जहि । हता इस मंत्रका गंडमाला (कण्ठमाला) से संबद्ध है। विश्वा भरातय उग्रण वचसा मम ॥२॥ पञ्च च याः पञ्चाशच्च संयन्ति मन्या अभि । यो अक्ष्यौपरिसर्पति यो नासे परिसपैति । इतस्ताःसर्वा नश्यन्तु वाका अपचितामिव ॥३॥ दतां यो मध्यं गच्छति तं निर्मि जम्भयामसि ॥३॥ सप्त च याः सप्ततिश्च संयन्ति व्या अभि । ' सरूपौ द्वौ विरूपौ द्वौ कृष्णो द्वौ रोहितौ द्वौ। इतस्ताः सर्वा नश्यन्तु वाका अपचितामिव ॥२॥ बभ्र श्च बभ्र कर्णश्च गृध्रः कोकश्च ते हता. ॥४॥ ये क्रिमयः शितिकक्षा ये कृष्णा शितिबाहवः। इतस्ता सर्वा नश्यन्तु वाका अपचितामिव ॥३॥ ये के च विश्वरूपास्तान क्रिमीन् जम्भयामसि ॥५॥ अथर्व०६. २५, हतो राजा क्रिमीणामुतैषां स्थपतिहतः। हतो पाँच और पचास जो कंठके ऊपरी भागमै हतमाता क्रिमिहंतभ्राता हतखसा ॥ ११ ॥ . वाक्योंका पुनरुच्चार सी कविताएँ होती हैं उसी के अनेक रूप धारण क डक २३ वै सूक्तमें वह यों है कि अक्सर इनका एक कूल निम्नालाज मीन धनपते जहि । हत सर्वा नश्यन्तु वा स्कन्ध्या अभि । ये के च विश्वरूपारीणामुतैषां स्थपतिहत इतस्ता सर्वा नश्यलयन्ति स्कन्ध्या अभिन२॥ बभ्रुश्च बभ्र कर्णश्चा