पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१८४

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अथर्ववेद ज्ञानकोश (अ)१७० अथर्ववेद कुछ वचनोंके रूप में है। मान्त्रिक लोग अपने कालो अश्वो वहति सप्तरश्मिः सहस्राक्षो मन्त्रोको रहस्यमय बनाने और उनको एक उलझी अजरो भूरिरेताः। तमा रोहन्ति कवयो विपश्चि- हुई गुत्थीका रूप देने में इन तत्वज्ञान विषयक तस्तस्य चक्रा भुवनानि विश्वा ॥१॥ मन्त्रोंका उपयोग करते हैं। यों ही देखने में जो सप्त चक्रान् वहति काल एष सप्तास्य नाभी- भाग गूढ़ अर्थले पूर्ण दिखायी देता है वारीकीसे रमृतं न्वक्षः। स इमा विश्वा भुवनान्यजत् कालः जाँचने पर वह खोखला शब्दजाल दिखायी देता स ईयते प्रथमो न देवः ॥२॥ है। इस तरह अपनी साधारण कृति पर रहस्य पूर्णः कुम्भोधि काल अाहितस्तं वै पश्यामो का श्रावरण चढ़ा देना और उसे गूढ़ कृतिका बहुधा नु सन्तः। स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ् स्वरूप दे देना मान्त्रिकका एक व्यवसाय ही कालं तमाहुः परमे व्योमन् ॥३॥ दिखायी देता है। हाँ, इन तत्वज्ञान विषयक अथर्व १६.५३, सूक्तोसे इतना पता जरूर लगता है कि उस समय भूरि रेत, अजर और सहस्त्राक्ष सात किरणो- आध्यात्म शानकी बहुत काफी चर्चा हो चुकी थी। वाला काल रूपीजो अश्व है वह ( हमको) ले जा उपनिषद ग्रन्थोंमें सृष्टिको उत्पन्न करनेवाला देवों रहा है। उसपर परम निपुण कवि ही सवारी का ईश प्रजापति माना गया है। उसके पश्चात् करते हैं। उसके रथके पहिये ही मानो समस्त यह माना जाने लगा कि शृष्टिको उत्पन्न करनेवाली भुवन हैं।१॥ कोई एक छाव्यक्त शक्ति है। ये दो तरहकी कल्प- इस कालके सात चक है, सात नाभियाँ है, नाएँ और ब्रह्म, तप, प्राण, मन आदि तत्वज्ञानके । अमृत ही इसका धुरा है। समस्त भुवनों में यही पारिभाषिक शब्द उपरोक्त सूक्त लिखने के समय प्रेरणा करता है और सवमें श्रेष्ठ गिना जाकर प्रचलित थे और उनका यथेष्ट ज्ञान लोगोको उस पूजित होता है ।। २॥ समय था। किन्तु यह कहा जा सकता है कि । काल पूर्ण कुम्भकी तरह है। उसे हम अनेक अथर्ववेदके जगदुत्पत्ति विषयक और तत्वज्ञान स्थानों में अनेक रीतियोंसे देखते हैं। वह समस्त विषयक सूक्त भारतीय तत्वज्ञानके उत्कर्षकी किसी भुवनों में व्याप्त है। वह श्रेष्ठ अंतरिक्षमें भी 'काल' विशेष अवस्थाका पता नहीं देते। ऋग्वेदमें ही के नामसे पुकारा जाता है। तत्वज्ञान विषयक जो सूक्त है उनमें वीजरूपसे इसी सूक्तकी पाचवीं और छठी ऋचामें निहित उत्तम विचारोंका उपनिषदकाल ही में इसका बहुत सुन्दर वर्णन मिलता है- संवर्धन हुआ । परन्तु यह कहा ही नहीं जा सकता कालोमू दियजनयत् काल इमाः पृथिवीरुत कि ऋग्वेद और उपनिषदोंमें तत्वज्ञानका जो विकास काले ह भूतं भव्यं चेषितं ह वि तिष्ठते । ५।। दिखाई देता है वह अथर्ववेदके तत्वज्ञान विषयक कालो भूतिमसृजत काले तपति सूर्यः । सूतोंमें भी दिखाई देता है। डायसेन (Deu- कालेही विश्वा भूतानि काले चक्षुर्वि पश्यति ॥६॥ ssen ) ठीक कहता है कि ये अथर्ववेद के सूक्त अथर्वा० १६.५. उन विचारा (ऋग्वद तथा उपनिषद्) के विकास कालके द्वाराही इस पृथ्वी और प्राकाशको पथमे नहीं पा सकते बल्कि पथके आसपास है। निर्माण हुआ है। कालहीमें भूत, भविष्य आर इन सूक्तोंमें इतस्ततः बहुतसे गहन तत्वोका वर्तमानका वास है ॥५॥ समावेश हुआ है। पर बहना पड़ता है कि ये कालहीने जगको उत्पन्न किया। कालहीक निकाचयाक सुन्दर कारण सूर्य चमक रहा है। समस्त भूतोंके वास मस्तिष्कसे नहीं निकले हैं बल्कि इन्होंने दूसरोके कालहीके कारण है और कालहीमें चक्षु (ख) परिश्रमसे अच्छा लाभ उठाया है। उदाहरणके का निरीक्षण है ॥ ६॥ लिये १४ वे कांडके ५३ व सूक्तको लीजिये। काल । कालके विषय में इतना महत्वपूर्ण प्रतिपादन (समय) समस्त सृष्टिका मूल कारण है। यह करनेके वादही पूर्व सूक्तमें उस समयमै ज्ञात भिन्न सिद्धान्त तत्वज्ञानीके मुखसे सुनने में भला मालूम भिन्न वस्तुओं और देवताओंका निर्मश किया गया होता है। परन्तु उपरोक्त सक्तको पढते समय है और बारबार यह जताया गया है कि ये सब मालूम होता है कि इसकी भाषा तात्विक नहीं है वस्तएँ और देवता इसी कालसे उत्पन्न हुए है। वल्कि किसी गढ़ सिद्धान्तवादीकी है। लाथर्ववेदके १३वे कांडके रोहित सूक्तमेभी शुद्ध ___ Deussen. Allgemeine Gerehichte तत्व ज्ञान बहुतही कम है पर गूढ़ बातोका प्राडं- -philosot hie I, 1, p. 209. वर बहुत है। इस सूक्तमें परस्पर सम्बद्ध विषय त: बहुतसे गहन तत्वा कालहीने जगका है। समस्त भू