पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१८५

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वशा माता राजन्यस्य स्वधे तव। वशोयायझ श्रायुधम ततक्षित्तमचायत॥ १=॥ गऊ पृथ्वी और जल का संरक्शण करती है। इस्शके पीछे सौ दूधके घडे, सौ दूध दुह्ने वाले और सौ ग्वाले रहते है। जिन देवताश्रौका इसके शरीर में यास होता है वेही इसको जानते है। यह क्षत्रियों की और स्वधा की माता है। इस का शख यक्ष है। 'चिप्त' की उत्पत्ति इसीके कारण होती है। इस प्रशंसा की सीमा निम्न लिखित ऋचामें दिखायी देती है - चशएमेचामृत माहुर्वशां मृत्युमुपासते। गौ ही को अमृत कहते है। इसीको मृत्यु समम कर इसी पूजा करते है। वशेदं सर्वम भवदू देवा मनुष्या ३ असुराहः पितर ऋषयः। २६ ॥ मनुष्य, अहसुर पितर,ऋषि - ये सब वशा (गौ) के ही रूप है। अब आगे लिखा गया है कि नित्य व्यवहार में गौका क्या स्थान है - य एवं विधात सवशां प्रति गृहीयात॥ २७ ॥ जो इस प्रकार जानता ही उसीको गौका प्रतिझह (दान) करना चाहिये।

ब्राह्मरोम्यो वर्शा दत्वा सर्वाल्लोकाम्समश्नुते। ऋतंह्मस्यामर्पि ब्रह्माथो तपः॥ ३३ ॥ ब्राह्मरगको गाय देनेवाला सब लोकों को प्रप्त करता है क्योंकि गऊमें ऋत (सत्य), ब्रह्म और तप - ये सब वास करते हैं। अन्त में - वशांदेत्रा उप जीवन्ति वशां मनुष्या उत । यशेदं सर्वममवद यत्रत सूर्या विपश्यति ॥३४॥

देवताओं का पेट गौपर निर्मर है, उसी प्रकार मनुष्य भी गौपुर ही निर्मर है। जहांतक सूर्यकी किरणें पहुंचती है वहां तक सब गऊ ही की माया है। जर्मन विद्वान डयूसन ने अथर्व चेदके 'तात्विक सूत्कें का अर्थ स्पष्ट करने की कोशिश की है और बहुत अंशोंमें वे उसका क्रम मिलानेमें सफल भी हुए हैं। उदाहरण के लिए २०में कांड के २रे सूक में ब्रह्मसिद्धिका विचार जडवाद और मीमांसाकी दृष्टिसे किया गया है। उसी का २२ वें कांडके = वें सूक्त में आध्यात्मिक दृष्टिसे विचार किया गया है। विदरनीट्स के मतानुसार इस सूक्त में इतना आध्यात्मिक महत्व है ही नहीं। इनका कथन है कि इन सूक्तोंके लेखक भूटे वत्वझानी थे। मनुष्य विराट विश्वात्माका अंश है - इस तत्वकी खोज उन्होंनें स्वयं नही की थी बल्कि वह सिधांत पहले ही प्रछलित था। इनहोंने उसे गुढ अच्यक्त और असंगतर रीतिसे लोगोंके सामने रखने की कोशिश की। ऋगवेदके १० वे मंडल के १२१ वें सूक्तमें एक अच्छे तत्ववेच तथा कविने विश्वके अनुपम वैभवका वर्णण बहुत ही स्पष्ट भाषा में किया है। परन्तु वह संदेह में पडजाता है कि ऐसे विश्वको उतपत्र करने वाला कौन है। ठीक इसके विपरीत अथर्ववेदमें में एक कवि म्नुष्य-शरीरके अवयवोंका रसीला वर्णण करता है और प्रशन करता है कि इनको किसने बनाया। केन पाष्णी आमृते पुरुषस्य केन मोसं सामृवंकेनगुल्फो केनांगुली पेशनीः केन खानि ..........॥ १ ॥ कस्मत्र गुल्फावघराच्कुएवत्रष्टीवन्तानुत्तरो पुरुषस्य जडे निऋत्य न्यद्ध्ःक स्मिजानुनोःसंधीक उ तचिकेत॥ २ ॥ इस संबंध की आठ ऋचांए है और आगे दी हुई नौ ऋचाक्षोमों मनुश्य-रचना और उसके जीवन संबंधी समस्त बातों की जांच पडतालकी है।

  प्रियाप्रियाणि बहुला स्वप्नं संवाधतन्थः। 

आनन्दानुभो नन्दाक्ष कस्माद बहुति पुरुषः ॥६॥ आर्तिरवर्तिनिऋतिः कुतो......। को अस्मित्रापौ व्य दधात्.....॥११॥ को अस्मिन रूपमदधात्को मह्मानं च नम च। गातुमुको अस्मीनुक्ः केतुमुकश्चरित्राणि पुरुषे १२।

को अस्मिन्सत्यं कोनुतं कुतोमृतभू ॥ १४ ॥

 इसके पश्चात उन्ही कवियों ने स्वाल किया है कि स्र्ष्टिकेऊपर  मनुष्यने किस 

प्रकार अधिकार प्राप्त किया ? इस प्रकारके सब प्रश्नों का एकही उत्तर दिया गया है कि मनुष्य ब्रह्मरूप है, अतः उसे यह शक्ति प्राप्ता हुई। यहां तक तो यह सूक समुन्दर न होते हुए भी

शुद्ध और स्पष्ट है। किंतु आगे की २६ हसे ३३
ऋचा तक फिर वही आखँमुंदौलका खेल शुरु हो
जाता है। एकाघ ऋचाँए देखिये।
  मूर्धानमस्य संसीव्याथर्वा हृदयं च यत।

मस्तिष्कादूर्ध्वःप्रैरयत पवमनओधि शीर्षतः। तद वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुज्जितः। तत माणो अमिरत्र्ती शिरो अत्रमथोमनः ॥२७॥ एसी ऋचाश्रोँमों गहन तत्वज्ञानकी खोज करना मानो उन्हें अनुचित महत्व देना है। डयूसनके मतानुसार अथये सम्हिता के २२ वें काएडके= वे सूक्त