पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१८८

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सुर्य उडिन होता हैं कोप: अपनी किररत्से अमर ज्यगोकीजूजि करना हे ।। (धु ।। पुश-पीपर देबताऔके औन्यश्ररी यश करते और उत्तम हवि लेते है । पृ८बीपर भी मनुष्य अपनी यत्" अनुसार छाछ अहणकर जरी, दिलाते हैं । यही भूमि हमें माण आयु और: खाब शरीर थे ।: २२ ।। है भूमि : तुझे जोशनेसे जाती भी अस उमस हो 1 है पाचक ( सूज ) तेरा हृदय मुझे धारण करनेसे लधु-ल न हो है आ 1: जिस पृकोपर मथ: धनुष्य लरिरसे ।२पकर गाते है छोर नाचते है जिसपर थे युद्ध वरते समय दुख-भि बजाकर कठोर शम-ब करते हि यह भूमि हमारे श३पको हटाते ओर हब शशुसे रहित रहने से 1) ४८ ।। अत और विद्वान-लेको धारण करनेवाल२ भन् ३धि1र अभद्र ( पाप ) के नि-की उपेक्षा करय-ती पृथ्वी, कसम और शम-दोनों ही के लिये भ्रमण करनी से यु ४८ (. है मातर पृथ्वी : मुझे अच्छी जगह:, बसे रख । है कहि : स्वय और' बाला जोड़कर मुझे यश और धन को ।। ६३ है यह सूक्त तो ऋग्वेद प्रमेय सुन्दर मालम पड़ता है : इससे कपार हैं कि अथर्ववेद संहिताओं यद्यपि ऋ-विकी अनार हैनुकी एकरूपता है फिर भी इसमें वी-पय: अनेक प्राचीन काटयोंके खण्ड नजर आते हैं । ऋगोदकी तरह इसमें भी बिलकुल निकृष्ट तथा भरी काव्य रचनाए समग्र ही साध प्राचीन युगके भारतीय काटने नन कृश अस्त:: रत्न भी दृष्टिगोचर होते है : भारत. वाली अबकी पुरातन काव्यकी उदर कल्पनाओं का शान प्राप्त करनेके लिये ये दोनों मय विचार णीय तथा महा-जल हैं । अबतक अविल और अथ-म खाहिलियक दृष्टिसे विवेचन विद गय: है और आराम कुली" पर लेटेलेटे पढ़नेकी अनार-जक रसमयी बने रखी गयी । प्यार्वद और आमवेदके लम्बन्वाभी कुछ यहि लिखना मामूली काम नही है (टिक दो स्वत्व शाकीका सिरबड अध्ययन है । इनमें से पहल, विश' से संबन्ध बखत: है और दूसरा सबसे । समति-मको सबका संग्रह कह-नेकी त्षेक्षा रागोका रब-ग्रह कहना उजिन होगा । यश बद 'य-ख' है । हम जिसे बैविकधर्ध अव: अ१नयर्म कहते हि उसका अभिप्राय यज-दशक धर्म है । यनुधदकाथर्णनकरना मानो यश आदिकी क्रियाएं जिस अश्व-बब अजित हो, उनकी चर्चा करनेके बराबर है । किन्तु ऋग्वेद बोर समवेत की सहित-मि एक तप, साम्य है । यह थी है कि इनके जतसौकी रचना किसी विशिष्ट कमोके पति, लिये नहीं हुई है । अनिच्छा विषय विभिन्नता ही इसका प्रमाण है । यद्यपि ऋगोदके असे सूब उपयोग य-लयों लिये किया जाना है ओर अयर्यवेदकी अचल ओर मथ विधियों और अभिसार कर्म३प्ति कहे जाते है फिर भी यह नही कहा बासम, कि आना इनकी नेत्र किसी उशिष्ट कमर प्रयुक्त करनेके लिब हुई हो । अधिकार अधिक शम यम कह सकते थे कि रजनी हैन्दोकी संहिकाकीकीरझानाका उद-य साहित्यिक था किसी तरह किसी निश्चय- कहने के लिये इनका यहि, रूपमें विशनियोग क्रिया गया । अपन (लकी शत्रुता यजाके लिये प्रयुक्त करनेके विचारे नहीं हुई । पश्यतु अथर्ववेद व्ययश्य की यर हृष्टिसे रचित दिखता देता है है औलयजीई ययर्ववेदका स्थान वहुत ही मनायक था । किंतु यज-विकी साधारण जानकारीके विदा इसका मान नही हो सकत, । अब है-शंग भत जो वाडमय ( रगहित्य ) अव है उसका विवेचन अनि दिया जाना है । पृ (झन भूब अम साहित्यमे स्वान-पच अ-प अथर्ववेद की धमकाधि ( संस्कार ) कहीं गई है । इन अभी को श्रुतियों समज ही महब दिया गयाहै । वे नि-रिम अन्ध है (, ) कौशिक वश अभय, संहिता कल्प, ( तो ) वेताल कला अथवा पत्र ( ३ ) नक्षत्र कल्प, कोर ( ए ) ओने कल्प अथवा अभिचार कार । अजिभ भी से अभूर्धषेदकी भी प्रप्रवार्य है । शन नोशाखाओमें से चार श-म उपरोक्त पाँच अथ हैं है उन चार शाखाऔको ( ( ) होन कीथ. ( र ) अध्याय, ( ३ ) जला ( ४ ) धहापद कहते है । ( अथर्व वेदस्य न८न्दा अवन्ति । तत्र उतर" शाखाध होनकाहिधु करिशिकोपुय सहिता विधि अथर्ववेद पद्धति-उपो-ददत ) । इसकी ऐप्पलख नामकी माना सबसे अधिक परिचित है है कोशिश तथा (शेतान रूल इस शाखायें नहीं हैं, क्योंकि उपखावके पूरे पूर मय उतारे द्वार हैं और प्रतीकीके ३रिवतरण नही लिये गये है । यक थे-था देवषिके मापन विषयक मसोका विरोध किया गया है । यह भी स्पष्ट है कि ८पम६०८७ मैं कोशिक रति र्शपनकीय शाखाके