पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१९३

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पतीक सकल पाठ १००१ के आधार पर लिया गया है। इसी भांति ६५३ का पतीक ,इदावत्सराय' सकल पाठ ४२२७ के आधार पर है। इस झथ मे केवल यही एक ऐसा उदाहरनण है जहॅँ संस्करण कपाने सम्पूऱा पऱीचीत तथा अनेक विशयों का उतम संक्षह तथा मिक्षन किया है। क्षनितम संस्करराके समय सकल पाठ ४२,२६ का'वतानि वतपतये' मन्त छोड कर सूत्र शैली का उपयोग करने में क्षूत्रकारने गलती की है। किन्तु पतीक पहले ही ६२६ मे क्षाचुका है सूत्रकगंथों में पूवापर सम्वन्ध वरावर रखने के लिये इसके विरुध कम क्षाया होता।२३७ ३० में क्षागे के तीन २श्लकों की प्रतीक 'इतिविसमि:' कह कर बिल्कुल वैसे ही दे दिया है।

   बुह्त सम्मव है किसी समय क्षदुत वियक शकुनोपशकुन 

शारत्र क्षथववेद्के विशय प्रान्तों में कहीं पर स्वतन्त्र्र्र रूप से रहा होगा किन्तु इस प्रकार के संग्रहों में मिलाने योग्य होने के कारन वह क्षम्त भूत किया गया होगा । इसी भॅंति पाररकर

ग्र्हा सूत्रों में क्ष्दुत विषय सम्बन्धी तीन क्षध्यायों का भी 

क्षन्तभाव किया होगा । किन्तु न जाने क्यों पो स्टेंल्लरने क्षपने सम्पादनसे वथाही वे क्षथ्याय ,को ग्रंथमें मिलाने का प्रयत्न बडी सावधानी तथा कुशलता से किया गया है किन्तु इस बात का चिन्ह बिल्कुल भी लुस करानेमें समथ नहीं हुए।

  यथापि सरसरी तौर से यह एक दम स्पष्त न दिखाईदे 

किन्तु फिर भी यह बुह्त स्मभव है कि चौदहवॅं क्षध्याय भी कौशिक सूत्र का क्षन्तिम स्तर होगा। क्षथावा मुख्यग्रंथ पूरा होनेपर संस्करण कतक्क्षीने पहले पाच एसे क्षाध्याय इनमे मिलाये होगे जो इनकेही समान तो क्षवश्य होंगे किन्तु उनमे विषय भित्र रहें होगे। भिर चौदहवेंकें बीचमें २३ वां अध्याय परिशिष्त और बुहत बातदका है तो यह भी मानना पडेगा कि २४ वा क्षध्यायों की क्षतस्थपूतिसे उपरोक बातें पुष्ट होती है।२४२ वीं फंडिक में बेंदपटनके नियम क्षपभ्रष्त खरूपमे दिये हैं तथा उनके बीच बीचमें गध तथा पध का मिक्षण है। यह स्पष्ट है कि इनका स्वरूप याद की बनी हई स्मतियोंके समान ही है और संस्करण कताओंके मनमें इस कएडकाके मिलाने की इच्छा बाद की है। इसका कारण यह है कि यघापि विघाथियों को बेद पढाना क्षारम्भ करनेके विषयमें क्षच्छा विवेचन क्षच्छा विवेचन किया है तो भी इन दो भागों के बीचमें इन्द महोत्सव नामक राथकाथ का विवेचन व्यथीही घुसेड दिया है। यघपि १३६ करिडका की भाषा की क्षपेक्षा भित्र नहीं है तोभी इस कारएसे संशय उत्पत्र होता है कि उसमें क्षाय हुए विषय का वरण पहले ही पू६.=में क्षाचुका है। पू६.=में विधातियों को सावित्रई पाठ का क्षादेश किया है परन्तु १३६.१० में सावित्रीके साथ साथ क्षथववेदके ४.१.१ तथा १.१. इन दो मन्त्रोंके क्षधिक बतानेकीक करूपना निसन्देह बाद की है और ब्लिकुल ही परिशिष्टके रूपमें है। इसका मुख्य कारण यही है कि किसी फी युतिद्रारा इस वेदको भी क्षन्य चेदोंकी क्षेणीमें सम्मिलित करना था और इसका स्थान क्षन्य धमॅझको ह्ष्टिमें महत्वपूंण तथा क्षभेघ बनाना था इस कंङिकाका मुख्य ग्रंथके क्षन्तभाग न होनेका पारिभाषिक प्रमाण १३६-१० में क्षाये हुए'तत्रषतीय'शध्दसे मिलता है। कौशिक ७, =एक परिभाषिक सूत्र है। इसमें बताया गया है कि गशके बाद के भागोमें'पूवम'क्षाथात सूकम शब्द त्रषसीय सूतके लिये योग्य होनेके कारण व्यवहार में लाया गया है। जहॅंआ इस सूतका वणन क्षाया है वहॅंआ सारे ग्रंथॉमें इस परिभाषा जी खोल कर प्रयोग किया गया है। देखिए १०.१,११.१,१२.१०,१४.१,१६.५,१=.१,१६, ३२,२। एसे कमसे कम इतनातो कहा ही जा सकता है कि अन्य अथ्यायोमें यह टक रीतिसे नहीं मिलाया गया है। उपरोक तथा इससे यह स्पष्ट सिध्य है कि यह अध्याय बादका जोडा हुआ है। यही सिथति १३= मडिकाकी है। इसमें 'क्षष्टका' विधि पहलेही १६.२= में सूत्र भाषामें आचुकी है। केशव के ध्यान में यह आया है कि वत्वत: ये दोनें वणेन एकही विधिके हैं। उसने १३वीं कंडिकामें एक स्थान पर इन दौनोंका विवेचन किया भी है। १३=वीं कंडिकाके बाद में जोडे जानेमें तो कोई सन्देह है ही नहीं। १४०वीं क्ंडिकाका विषय 'इंद्र महोत्सव' है और उसकी भाषा शैलि परभी