पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/१९४

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ध्यान देनेसे उप्योग सिध्दान्तकी ही पुष्ठि होती है। क्षत:यह एक परिशिष्ट है और क्षथथॅ परिषिष्टा २६वें में कुछ विस्तारसे दिया गया है। इससे वहतो सिध्द हो हि ज्ञाता है कि इस संग्रहकी भाषा तथा शब्दरचनामें कोईभी अशोभनीय बात नहीं है। कंडिका १३७ का क्षाज्य तन्त्र दश पखॅमास विथिके एक भागका विस्तुत वणणॅ है। उसमें केवल बढी बनानेके नियम तथा लक्षण क्षादि विषयोंका क्षाधिक उल्लेख है। ६,२६-३० में इस प्रकार लिखा है,'इमा दशॅ पूणॅ मासौ व्यख्यितौ। दशॅ पूख मासाभ्यां पाक-यक्ष:'। इस से १३७-४३ के 'व्यासभ्यातं सव यक्षियं तन्त्रम 'की आवशयकता नहीं रह जाती। केवल सूत्र भाषा की ष्टष्टि से १३०-३० की २.४१ के 'क्षछिभू भ्याम इति विसभि:' से तुलना करने पर पर यह ध्यानमें क्षावेकगा कि १३७वीं कएडका १-३ के बादकी है। १३७-३० में तीनों त्रचायोंकी प्रतीक प्रराभ्यसे क्षन्त तक हैं। यहॅंआ पर यह लिख देनाभी बडा आवशयक यह कि दश पूएमास तथा क्षाज्य तन्त्र का वणण करते समय केशव ,दशकमाणि,क्षथवण पध्दति और क्षंत्येष्ट शैलियोमें भित्र भित्र क्षवतरणोंकों क्षापसमें मिला दिया है।

    इससे स्पष्ट है कि १३वें तथा १४वें क्षाथ्याय ग्रंथके क्षन्तिम स्तर

हैं।

   पहले क्षध्यायके शुरूकी ६ कंडिकाओंकी बातही बिल्कुल निराली है।

१.= तक बिल्कुल साधारण पारिभाषिक सूत्र देनेके पधात ६-२१ तक विशेष परिभाषायें हैं। १.= तकमें ग्रंथके मूल क्षथ्याय दिये है। ६-२१ तकमें देव तथा पितरोंकी पूजा का भेंट दिया गया है। यही शैली सूत्र ग्रंथों की हैं। प्रथम ६ कंडिकाक्षोमें केवल दश पूणमास विधिकाही वणण है।६-२१ तककी परिभाषाओं का प्रथमकी ६ काएडकाऔंकी,क्षपेक्षा क्षाधिक विस्तत-रूप से वणण होना चाहिये। इसमें पितरों की किसीभी पूजा का उल्लेख नहीं है। बहुत सम्भव है कि इन परिभाषाक्षाका सम्बंन्ध ग्रंथके क्षन्तिम भागको उदेश करके हुआ होगा। इस कथनके प्रमाणमें ११ क्षथ्याय ध्यानसे देखाना चाहिये। इस प्रकार माननेमें एक खास क्षडचन यह पडती है कि दश पूणॅमास विधिके बाद ही विशेष विस्तुत नितिवाली परिभाषाक्षोंकी ३ कएडिका क्षाई हैं। कदाचित वह वहा इसी हेतुसे रक्खी गयी हैं और प्रथम कएडिकामें ६-२१ के क्षधिकार का उपयोकग बहुत क्षध्यायों तक नहीं किया गया है। जहा क्षाज पहले ६ कंडिका हैं,उसी स्थान पर है। जहा आज पहली ६ कंडिका हैं,उसी स्धान पर वे पहले नहीं थीं। यजु:संहिताके क्षौत सूत्रके ग्रंथका क्षारम्भ तो दश पूणमास का उल्लेकख करनेके पक्षात किया जाता था। ब्लूमफील्डका मत है कि सढाका प्रचलित नियम करही वे वहा रक्खी गई होंगी। इस मतकी पुष्टि के लियेभी प्रमाण हैं।'व्रतानि व्रतपतये'त्रचाका प्रतीक ६-१= में दिया है और सकल पाठ ४२-१६ में है। इस से यह प्रतीत होता है कि कौशिक तथा वैतान सूत्रके सदाके नियमके अनुसार ४२-१६ और उसके बाद ६-१=त्राना चाहिये। किन्तु एक दूसरा उदाहरण है जो इस प्रकार नहीं घटाया जा सकता। कौशिकके 'क्षच्युता घोरिति' का प्रतीक ३पू.१२ में तथा सकल पाठ ६-२ में है। क्षत: तेरहवें क्षाध्यायके मन्त्रकों उपयोग इस प्रकारही किया देख पडता है कि किसी समय वह एक स्वतन्त्र संहिताके ही रूपमें रहे होंगे।'प्रयच परशु इति दभाहाराय दात्रं प्रयच्छति'(५,२४) के एक्षात ,११ में इसी अथ का परिभाषिक सूत्र कुछ भित्र भाषामें दिया हुआ है। इससे यह तो सिध्द हो ही जाता है कि १-६ क्षथ्याय क्षगले क्षध्यायके क्षाधारपर क्षथवा उनसे मिलकर नहीं रचा गया है। चाहे ये क्षथ्याय इसी ग्रंथ का एक पथक पाठ होगा और यह किसी पथक ही ग्रंथाकार दारा रचा गया होगा। कएइडका पू२-पू३ के बाद ही मुख्यसूत्र के क्षनन्तर,किन्तु गहा क्षध्यायके पहले ही उनका योग्य स्थान रहा होगा। किन्तु इस भाग की इतनी ही विशेष बातें देखकर कोई सिध्दान्त निकाल लेना ठीक नहीं मालूम होता। कौशिक क्षथव तथा गहसुत्रओंका सम्बन्ध-उपयोग वणनके अनुसार मुख्य क्षथव सूत्रओंका आरम्भ ७ वीं कंडिकासे होकर पू३ वीं कंडिकामें इनकी समाझि हुई है,किन्तु बीचके ४२,पू से ४पू तक का विषय बिल्कुल भित्र है। इसकी भाषा भी गहसूत्रके समान है किन्तु इन क्षथव सूत्रओमें क्षथववेद-कालके क्षायुध्यक्रम की स्पष्ट देख पडनेवाली बातें वतमान हैं। बारहवें क्षध्यायके क्षन्त तक बची हुई कंडिकाक्षोमें क्षथव मन्त्रओ के आधार पर क्षथवणका दष्टिसे सदाकी भाति गह क्षाचरणओं वणण आया है। अथव सूत्र बिल्कुल पुराने तथा स्वतन्त्र हैं। शब्द संग्रह तथा शब्द समुध्दि की दष्टिसे इनकी भाषा थ्यानमें रखने योग्य हैं।