पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/२१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

का मतभेद नहीं है । जालिका कैथल विश्चस्पपौ करणके सावंधपें कोईमत बिशेष नहीं था क्रितुधाट्ट एक साठेप्रदाय था जिसमें विशिष्ट आचार और उपासनाओ का बोध होता था 1 इसी लिये व्रर्दव्र की स्थापना करनेके प्रयओकै खाब ही सत्य और भी कुरु क्या करने पडे, जिन बिचारोंके कारण यहीं संस्थाका हाल हुआ ऐसे विचार: उपनिषदोंप्रे बहुत कुरु व्यक्त है दू यह बात… नहीं है कि संस्थाके हास होनेके साधती कैक्ल "ओपनिषद' विचारों की प्रबलता हुई वल्कि नोंद और जैन इत्यादि साँश्वायभी उत्पन्न हो गए थे। भागात सांप्रदाय भी इसी समय उत्पन्न मुआ । यहसंस्था द्वारा ब्राह्मणी का जो प्रभुत्व बढ़ गया था वह इन विचारों द्वारा र्कम होनेवाला जा । उपनिषदीसे जिन दर्शनोंफी उत्पत्ति हुई उनके कर्तामी श्या-दी थे । पौद्धजैन आदि मसौके प्रवर्तक प्रम्लणेतर ये । याहाणोंकौ तो अपना "त्राहाण महत्व' कायम रखना था इसलिये बोद्ध ड्डीन इत्यादि मतोंड्डों काष्णलो 'दैवता' उत्पन्न हुए और जो उपासनाएँ प्रारम्भगुई उनका विरोध करनेके लिये या उनको कमजोर बनाने के लिये साधारण लोर्गोकै जो देवता थे उनका महत्व पढाना प्राहाणोंकें लिये आवश्यक था । यब प्रवर्तक और यदृत्रिरोधी-कैषल दो होवत न रहकर कई दल हो गए । थे दो भागौमै पँट गए । नोंद तथा जैन इत्यादि एक भागमें और दूसरे भागमे थेदरैर्गोंकेरचेथिता. दृर्शनोंके उत्पादक, साधारण जनताकी उपासना: छोर वीरों का महन्य वर्णन करनेवाले थे । इन दो धिभागोंके कारण जो सन्धवेचा वेदांग दु ओर दर्शनोंकै प्रवनैकौमें से निकेले वे अपने को प्रचलित उपासना कस्नेत्रालोंफे घर्गसे अलग न रखसके । ऐसा करनेसे उनहीं का वर्ग बलहींनटों धाता । ब्रर्दतम्नत ब्राह्मण जाले महत्व को ५ स्वीकार करहीं नहीं सकना जा, परन्तु विचार प्रवर्तक ब्राहमण हीं थे जातिशन महत्व बजाए रम्ननेकैमोहका संचरण शंकराचार्य भी न करसकें इसकाफलण्ड हुआ कि तावत: टोम्रद्धश्त सिद्धांत मान्य हुआ, पर आचाहँर्मि भिब्र रहने लगा । इस तरह के विचार रखने और आचार उनके विपरीत रै फरुनेसेएकउलझनसौ पैदा हो गयी जो कि मनीषा र्पचफमें स्पष्ट रूपसे व्यक्त की हुई दिखाई देती है।

शंकराचार्य द्वारा प्रवर्तिस्र र्पचत्यतन पूजा का संबंध अबैत यतते क्तिकुड्स नहीं है ओर जाति भेद तो उससे कहीं अधिक दूर है । शफराचायेंकै जीवनमे उनकी मैंव्यक्रिफरिथातेके कारण विशिष्ट उपासनाओंका विरोध ओर केवल चातुवैरुय तत्व ही नहीं षक्ति जातिगत उशा ओरवीचरुव बोधक विषमता का तत्व जाकराचाय९को स्वीकार करना पडा । परिस्थिति पादुईफि एक ओरलोगयेवान्य की नार्वे बोलते थे और दूसरी ओर बाहाणेनर जानिर्योंकैसे छुआदूत् मानने लगे थे। अर्दतभत यहि केवल एक सिसाँत ही रहता तो भी इसका महत्व कायम रह जाता [यिल्लु षट विशिष्ट उपासना और विशिष्ठ आचार स्थापन करने का कारण हुआ । ऋकिराद्यार्थकै प्रयत्न विविध थे । उन्हें ( १ ) अर्दे'व्रभत अर्थात् सकल विश्व एक दब्य मय है इस तत्ब की स्तापना, (२) इस तत्व का - वैदिक आधार है इसलिये इस तत्व का और साथहीं वेपौका समर्थन और ( ३) प्रवर्तित उपासनाथों को नया रुप देना ये तीन ३ कार्य करने थे । बहुतसे अनुकूल उपासनासाँप्र- दायोंसे भिड़ना था । र्शकराचार्धको पौद्धोंका दृ आस्तित्व मिटाना नहीं था षक्ति उनके फर्म तथा उपासना मार्गको प्रधानता को कम करना था।

बौध्यधर्मके एतनके समय बहुतसे सामप्रदाय हैं वह गए ये । जिनमें शेव, वैष्णव और कापालिक ३ इस्यादिथे । थे सांप्रदाय आस्तिक अतकै पोषक ये। किन्तु गुन सांप्रदार्माके अन्तर्गत अनाचार जघभ्यकमैं, बिफर कहूँकांड आदि बाते ऐसी थीं जोकि किसीभी सात्विक ज्ञाम्यजिशके पुरुषकै दृदयमें घृणा उत्पन्न कर सकती थी क्योंकि सर्व- साधारण समाज्ञके हिप्तकी ओर रष्टिरखकरु पिगडी हुई परिस्थितिकी सुधारनेकौ शक्ति स्तुत थोडे लोर्गोंमैं होती है है अतिशयोकिका विचार न कर उस समयफी समाजिक श्रघश्याका मान शंकर दिग्विजय' के निम्न एसोसौसे ठीक ठीक हो सकेगा - पर्णश्रम समाचारान्तिपन्ति व्रह्यविब्रषदृ मुयक्यान्मत्यवक्सग्रेजोबिकामस्यतां प्रभो ।।३२।।

   *     *     *     *

शिव दिष्णवागम परैर्लिगचक्रादि चिन्हितै पाखरडे: कर्मसंन्यरुतंव्यास्पारमिवटुर्तवैदृ।।३५।।

   *     *     *     *

सद्यारुत्त द्विशशिरा पक्कजासिंरां भेंरबै: नध्वस्ता लोस्मयाँदा काया कानाखिकाशप्रे: मैं ।।३७।।

   *     *     *     *

श्रन्वेपि गहनो मार्मा सन्ति भूमी सकएटका ब्रनैयेंपु पदंइत्मा दुख दुखमाप्यते ।। ३९।। इस प्रकारकी परिदिधतियें समाजफौ र्धतमुँखी करनेवाले किसी समाजसुधारक की अत्यन्त