पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/२३

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ताल्लुका एवं पक्ष्चिम में काठी राज्य है।१८७२ में यहाँ की जनसंख्या लगभग १४ हज़ार थी। इसमें उपजाऊ भूमि लगभग १५ हज़ार एकड़ है। इस परगनें में १७२ गाँव है जिनमें से सत्रह ऊजड़ है। इस परगनेकी सारी जमीन पहाड़ी है और १६०० से लेकर २५०० फिट तक की ऊँचाई पर है, इसमें कुछ गाँव धनी हैं। यहाँ जमीन की सिंचाई के लिये बहते हुए भ्करनों का पानी आधिकता से मिलता है। मकई तथा अन्यान्य अनज़ों की खेती अच्छी होती है। बहुत उँचाई पर सिथत प्रदेशों में घने जंगल है और उनमें ईधन योग्य लकड़ियाँ बहुत पायी जाती हैं। इसके अतिरिक्त इन जंगलों में अनेक प्रकार की औषधिया तथा रंग तयार करने योगय वनसपतियाँ मिलती हैं। यहाँकी सृप्टिका सौन्दर्य भी देखने ही योग्य है। गावों के आसपास आधिकतर आम और महुओं के पेड़ो की घनी भ्फाड़ी हैं। नदी किनारे का प्रदेश हमेशा हराभरा रहता है और बीच-बीच में खजूर्स आदि के वृज्ञ ध्प्टिगोचर होते हैं।

   इस पहाड़ी प्रदेश में तुरणमाल सबसे महत्वपूर्ण पहाड़ हैं। पूर्वीय भाग में उसकी ऊँचाई ४०० फुट है। इसके अतिरिक्त कोमल, उदद, अप्टम्भ आदि पहाड़ हैं। इस प्रदेश के पत्थरों में चाँदी, ताँवा, लोहा आदि धातुओं के कण  दिखाई देते हैं। पानी भरपूर मिलता हैं। कूँए, नदियां और भ्तरनों में गरमी में भी पानी रहता है, तथा शीतज्वर उत्प्न्न करने वाला हैं। यहाँकी ज़मीन कंकरीली होने के करण य्हाँ गेहूं, चना आदि अनाज उत्प्न्न नहीं होते। यह प्रदेश ऊँचाई पर स्थित है, इस कारण यहाँ की हवा ठढ़ी रहती है। यहाँ जाडे में सर्दी बहुत पड़ती है और कभी-कभी कूऔं का पानी जम जाता हैं। बरसात में पानी भी खूब बरसता है। यहां के निवासी मेहनती और उघोगी हैं तथा जनसंख्या बराबर बढ़ती जा रही हैं। इसमें मुख्यतः वरली तथा पारबा जाति के लोग हैं। शायद पारवा जाति के लोग राजपूतों के वंशज हों। इस जाति के लोग खेती के काम में वारली आदि भीलजातियों की अपेक्षा अधिक कुशल हैं। ये स्वभावतः सीरू हैं; पर थोड़ा परिचय हो जाने पर ये बड़े आनन्द से बातें करने लग जाते हैं। सब लोग खेती करने हैं और बहुत से लोग गाय  भैंसों को भी पालते हैं; बकरियाँ मुर्गियाँ सथा बत्त्क भी पाले जाते हैं। भेड़ और सूअर कोई नहीं पालता। ज्वार, बाजरा और नागली यहाँ की मुख्य उपज हैं।
   खानदेश से अकराणि परगने को जान के लिये पांच तंग पहाड़ी मार्ग हैं, उनमें शाहाघा की और से जाने पर 'नयागांव' घाटी पड़ती है, जिससे होकर बैल, घोड़े आदि बड़ी सरलता से जा सकते हैं। शेष घाटियों में केवल पैदल जाने योग्य मार्ग हैं, जिनमें कुछतो बहुतही बीहड़ हैं। अकराणि परगने से अनाज, महुए के फुल, शहद, शहदकी मक्खियों का मोत्प, लाह, गोंद तथा राल आदि चीज़ें अधिकता से बाहर भेजी जाती हैं।
  इस परगने का अधिक इतिहास नहीं पाया जाता। धड़गाँव तक का देश खानदेश के मुसलमान राजाऔं के आधीन था। उसके उत्तर की और नर्मदा नदी तक का प्रदेश स्थानीय राजाऔं के ही अधिकार में था। सन १७०० ई० के बाद यह प्रदेश धुशचई के रणाऔं के अधिकार में चला गया। उनमें से राणा गुमानसिंह ने अकराणि किला तैयार किया। चार राणाऔं के शासन-काल के बाद यह घराना निर्वश हो गया और इस राज्य में चारों और अराजकता फैल गई। आगे मतवार के राणा भाऊ सिंहने इस परगने पर राज्य स्थापित किया और रोशमल किला( जो आजकल गिर पड़ा हैं) वनवास। १८१८ ई० तक राज्य करने के बाद ब्रिटिश सरकार ने इस घराने को २८६८ रुपये की पेन्शन निश्चित करके सारा देश अपने आधिकार में कर लिया। यह राज-घराना बड़ा प्रतिष्टित हैं और बडोदा के गायकबाड तथा छोटाउदयपुर के राणाऔं के साथ उसके विवाह-संबन्ध हुए हैं।
    अकलुज--यह गाँव बंबई प्रान्त में सोलापुर जिले के मध्य में मालशिर के उत्तरपूर्व ६ मील दूर नीरा नदी के तट पर बसा हुआ हैं। यहाँ एक बडा भारी व्यापार चलता था, इस कारण यह गाँव बडी उन्नति पर था। यहाँ एक किले का खंडहर है। यहाँ डाकखाना है और सोमवार को बाज़ार लगता है। चीजापुर में प्लेग होने के कारण औरन्ड्जेब ने सन १६८६ ई० में इस स्थान पर डेरा जमाया और रोग हट जाने पर यहाँ से डेरा हटा लिया। कैप्टन मूरने सन १७६२ ई० में यहाँ का वणन करते  हुए लिखा है कि यहाँ का बाज़र बहुत  बडा हैं और यहाँ पर एक किला तथा कुछ सुन्दर इमारत और कूँए हैं। सन १८०३ ई० में जब जनरल वलेस्ली द्वितीय बाजी रावको पुनः गधी पर बैठाने के लिये औरंगपट्टम से पूने की और जा