पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/२४०

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अनंतत्वः ज्ञानकोश (अ) २१६ अनंतत्वः परस्पर विरोधी विषय एकत्र आए हुए देख परन्तु इसके पश्चात्के ग्रीक विचारोमें सोक्रेटीज पड़ते हैं। और उसकी पंथकी भरमार होनेसे अन्तरहितत्व पारमार्थिक उदाहरण लेकर भी यही अर्थ व्यक्त की कल्पना कम महत्वकी हो गई और उसके किया जा सकता है। काल दृष्टिसे अस्तित्व और जगह पूर्णत्वकी कल्पनाको महत्व मिलने लगा। कार्य कर्तृत्वमें ईश्वर ही अनंत हैं, अर्थात् उसके यूरोपीय विचारोंमें अन्तरहितत्व तथा पूर्णत्व अस्तित्व तथा कार्य कर्तृत्वकी कोई मर्यादा नहीं की कल्पनात्रोका कैसे प्रादुर्भाव हुआ, इसके है। इसी लिये ईश्वरको अनंत और सर्व शक्ति- विषयमें अधिक कुछ नहीं कहना है। इन दो मान् ये विशेषण लगाते हैं। दूसरी ओर हम लोग कल्पनाओंका एक रूप करनेका अथवा विरोध ईश्वरको वुद्धिमान और सर्वोत्तम कहते हैं तब दर करनेका कार्य कार्टेजिअन् विचार परम्पराके उसके बुद्धिमत्ता और उत्तमताकी कोई सीमा न लोगोंने किया। इस परम्पराका सिद्धान्त है कि होनेसे वह पूर्णतया बुद्धिमान और उत्तम होता कहीं कहीं पर तो अत्यन्त पूर्णतत्व अवश्यही है। ईश्वरकी बुद्धिका अन्त नहीं अर्थात् विशिष्ट अस्तित्व में है। इस कार्टजिअन् मतानुसार अन्तविषयोंमें वह जितना वुद्धिमान होता है, उससे राल एक अनन्त पूर्णतत्व है। दूसरा सत्सरूप वह अधिक बुद्धिमान है। साधारणतया ऐसे द्रव्यभो इसो प्रकारके हैं। स्पिनोज़ाने उपरोक्त तुलनात्मक अर्थोसे सदाही उद्देश्य नहीं रहता। सिद्धान्तका तार्तिक दृष्टिसे अपने तत्व ज्ञानमें सारांश यह है कि ईश्वरमें काल दृष्टि से अनंतत्व स्पष्टीकरण किया है इसके बाद लाइबनिट्स और ज्ञान दृष्टिसे पूर्णत्व दोनोंही कल्पनाएं एकत्र ( Leibnitz) ने 'प्लेटो' के 'उत्तमता' को कल्पना वास करती हैं। का पुनरुद्धार करके जेनोंके कालसे जो सिद्धान्त थोडाही ध्यान देनेसे यह स्पष्ट हो जायगा कि त्याज्य समझे जाते थे, उसको फिरसे महत्व दिया। संख्यासे गिनने योग्य जिसके भी भाग करते हैं Infinite multiplicity & divisibility) गुणा उसीके विषयमें अनंतत्वकी कल्पनाको जा सकती और भागके अनंतत्वकी कल्पनामें जोड़चने पड़ती है। परन्तु केवल गुणवाचक शब्दोंको जैसे, उत्त | हैं उनका विस्तृत वर्णन प्रसिद्ध तत्ववेत्ता कॉन्ट मता, सौन्दर्यको अनन्त, असीम इत्यादि विशेषण | ने दिया है। इस कल्पनासे परिपूर्ण अनन्तत्वकी लगाना असम्भव है ऐसी स्थितिमें अनंतत्वका | कल्पनामें विरोध पड़ता है। श्राजकल बहुधा अर्थ सम्पूर्णता, अव्यंगताही लेना चाहिए । परन्तु | अनन्तकी कल्पना गणित शास्त्रीय दृष्टिसे ही की 'अनंतकल्याण इत्यादि शब्दोंमें 'अनंत' का जाती है। पूर्णता दर्शक अर्थसे उपयोग करनेकी प्रथा पड़ो ग करनका प्रथा पड़ो परीक्षात्मक सारांश-अब 'अनन्त' शब्दमे है। और जब 'अनंत' मूलका अर्थ 'अन्तरहित' है | परिपूर्णत्व और अमर्यादत्वकी जो कल्पनाये हैं और यही शब्द पूर्णता दर्शक अर्थमें उपयोग किया उनको छोड़कर इसकी विशिष्ट कल्पना की ओर जाता है तो इन दोनो अर्थीका विचार करना ध्यान देना चाहिये। गणित-शास्त्रकी दृष्टिसे यह श्रावश्यक ही है। . स्पष्ट हो जाता है कि कुछ विशेष श्रेणियोंमें अनन्तत्व अनंत कल्पनाका इतिहास-इस कल्पनाका मूल की कल्पना होती है। इसी कल्पना को सूक्ष्मरूप प्राचीन पश्चिमीय सभ्यतामें देख पड़ता है। से देखने पर इसके विरुद्ध तीन भावनाकी सम्पूर्ण विश्व मर्यादा रहित है। यह कल्पना अत्यन्त प्राचीन है और यूनान देशमें (Greece) (१) इस प्रकारके गणितशास्त्रीय निर्णय पहले पहल इसका प्रादुर्भाव हुश्रा देख पड़ता है। सदाही भावना विषयक (Subjective) होनेसे वस्तुतः यह कल्पना पूरी पूरी 'अनंतत्व' के संबंध व में न होकर 'अमर्यादत्व'की ही द्योतक है। परन्तु वस्तुविषयक महत्व (Objective Significance) तु कुछ भी नहीं रह जाता। श्रमर्यादत्वकी कल्पनासे अनंतत्वकी कल्पनाका (२) इस प्रकारके निर्णय अस्तित्व विषयक उद्भव है। पथॉगोरिअन ग्रीक पद्धतिमें ऐसेही विशीष्ट गुणधर्म दर्शाते हैं। विचार देख पड़ते हैं। इसके बाद एलिश्रटिक ( Eleatics ) विचार पद्धतिमें इस अनंतत्व (३) ये निर्णय वस्तु विषयक महत्वके हैं की कल्पनाका बहुत विकास हुआ दिखलाई देता | अवश्य, किन्तु जो उदाहरण अस्तित्वके हैं उनपर लागू नहीं होते। है। यह पंथ परमाणुवादी है। इस पंथका सिद्धांत इन तीन सिद्धान्तों का सूक्ष्म विचार करनेसे है कि अनंत सख्यामें परमाणु संचार करते हैं, यह स्पष्ट होजाता है कि इन सिद्धान्तों में कुछ दोष