पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/२४२

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अनन्तपद् ज्ञानकोश ( अ ) २१६ अनन्थ्पुरि जिला के मतानुसार (symphyaln) सिमफायला और (ponrapoda) पोरोपोडा ऐसे दो भाग और भी किये जता है। इस वग्र्में (scholopendra) गोजर विपशुक अनन्तप्द इत्यदि जन्तु कह सकते है।

कलमी युरी-संगत नहीं है कि किसी हो समान समान किया जाना अभ: है । इसी अपर: वक्ष को संत का है दो वचन । अनन्त कल्याण का सम्पूर्णहित गुण-वाचक अर्थ कीसौद्यसाके भेदसे तुकनानहीं जासकता लगाना चाहिये । कलश ई-रकी मते उदाहरणार्थ यह नहीं कहा जा सकता कि नीले कम-रोज अस-कीच-काया और हरे रख्या भेद हरे छोर पीले र-के भेदके पंत रई ही : समान ही है । इन उदाहरणों, स्वय अथवा । अनन्त-विस-भा (प्र1द्वा०ह ) यहि एक कहि अण्डमान-धारण-असा-सायर".) अंश से देखाजाय तो वि१त्९भी अ-बम समावेश की-' परम. अम मानब हिल कोई : होता है, क्योंकि उन सख्या का समावेश होना है भी आधार नहीं हैं । उसी भय यहि मिल भिन्न गुणधर्म-आक उदाहरण लिये जाम तो इसमें तनिक भी सन नहीं रह जाता कि वे संख्या मर्मादित हैं । आधि सव अयन साम्य विकास द्वारा रस काधिनाई कोई उन हए नहीं व जाता कि यब पदार्थ अनन्त अब विभाज्य है । अनत-मर" तत्ववेत्तयने छजझके जोअनन्त१ही। क्रिखइससे यह नहीं कहा जासकता कि विअलों अस्तित्व ( अजि७१टा10म ) अनन्त है । यहि अम का अर्श इतना ही लिय-धि जीकल्पना करने योग्य गोले सत्य हो, तो यह कहना यल (के सिप्रार्थ असल ही अलख भार पर है । किन्तु यह कहना करिम है कि वि-ब ही अनन्त है । केवल -व्यज्ञादि१रिर अ-ब को कल्पना का उपयोग ईश्वर की ( पुर्ण होने की दृष्टिसे ही यह अल अवश्य कमल किया है है असत्य की ऐसी कहना कहा जासकता है । द प्राय ज्ञान, कांस तशरवयज' आहि आँके ही अनन्त. है यह भारकराचाय का श्चियमें ब१जा४रे है: इस बन्पनामैं यहि असत्य वंशज था । धमनी स्थिलके २० र अध्याय का अर्थ असीम लिया जाय तो अन-नसे । और वृ-तक पर इसने टीका की है । इसका तात्पर्य होगा केवल जय को अनन्त संख्याका शक संक ११४४ है (शंख बा० यन-भारतीय ज्ञान है सख्याकी घटना एकही तब पर होनेसे जयोतिशशज) कोई भी ।त शणिशश अमल सं-बाकी कल्पना ( हुए उह कृष्णभक्ति संदिका नामक नाटक कर सकता है देखा होने पर भी यह नहीं कहा का के था । इसके विरत, का नाम आय य: । जासकता शि संस सम्पूर्ण पार-रिक-य अस देव राजा बाज-के आय रहना से बह मिड होगा । ९ससे आम-म अनन्त । जाम । उसका दिखा अ-पर्व-न अनाज अनके विन समझने आ सकता है है का पुछ और पूर्व-खले आपस का जाती था : किन्तु अल का अर्थ असहित लगाने पर [ ( आँ-मजट-अउ, ईट, पीट-, रिपोर्ट ४ ) अनाज. की (जपना करम, अत्यन्त कय अन.-. "श्रीश.). आनि, है । कुच संश्वकारोने श-अन-मश-पर न बडे बस, गो-, वाणी जाय जन्तु होते हैं । अनुमान हैम' (दह देखब व्यर्थ हीष्टिद्ध द्वार । । यह अंधीपाद चले का ही एक धन है । रन.' जे/मगी है- मगे-पके 'सगर अनन्त-जाकिया तथ-की-कीचन सशिम्यहोताहै । आलम अथ पवार-विरान घटनाओं को पकरी गोल । के संबोशसे ही इनकी अयनिम उसकी रन करना है । भी रन सफेद, उत्तम को खराब, है है अपने चीरकर स, युगल-, के अथवा अनन्त को सम ( अम. है, २-तिर को ए । तीन पकरी यह कीधही पहचाने मसकते है । अथवा ., इत्यादिके स, समावेश करना: इनके कबन्ध-पर अनेक वलयहोते हैंऔर किन्तु अनन्तर-ब परिपूर्ण ईश्वर: शकी का प्रत्येक वलय: साथ दो देर उई रहने हैं । चल तनाव भी समय है 1 अत अमल शन्ति । मय क-शरी अथवा कीटवश्वगौले इनकी मैं से लिये द्वार कोई भी विशेष प्रण को ही प्रकट । तुल करने पर इन बहुत कमी म पन है । करना सम्भव देख यम' है, क्योंकि ऐसे समय इस छोर्णत्री अंयके दो मुख्य भाग किये गये है । अभय अथवा अप्रिय पदार्थ अलग कर दिये. पहला मतम अपन ( (प्र-पता ) और इधर, जाते हैं । ऐसे ही लिये हुए विशेरंके अनन्त मजखन ( ()1.101, ) का है: कुछ जानी