पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/२६३

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ज्ञानकोश (अ) २३६ अन्न Navavaran लमानोंमें भी बहुत से पशु पक्षियोंका मांस हराम सप्रेत्य पशुतां याति संभवानेक विपतिम् ॥ माना है। ब्रेजीलके लोग अपने पाले हुए पशु- (मनु ५,३५) पक्षिका मांस नहीं खाते। भारतवर्ष में बहुत सी अर्थः-खरीद कर अथवा स्वयं उपार्जन करके स्त्रियाँ पुत्रवती होने पर 'पेठा नहीं खाती क्योंकि अथवा दूसरेसे भेंट किये हुए मांसको देव तथा 'पेठा' और 'बेटा' शब्द में बहुत कुछ साम्य है। पितरोका अर्पण करके जो शेषका भोजन करता हिन्दू शास्त्रकारों का तो ज्ञान इस विषय पर है वह पापको नहीं प्राप्त होता । श्राद्धमें तथा बहुत बढ़ा चढ़ा था। उन्होंने सम्पूर्ण अन्न को मधुपर्कका मांस शास्त्रके अनुसार नियुक्त जो तीन भागों में बाँट दिया है-(१) सात्विक, मनुष्य मांसका निरादर करता है वह मरके (२) राजसिक तथा (३) तामसिक । भोजन के इक्कीस जन्मों तक पशु होता है। नियम भी उन्होंने पूर्णरूप से दिये हैं। भिन्न भिन्न निम्नलिखित श्लोकसे स्पष्ट है कि आपत्ति अवस्था का तथा भिन्न भिन्न जनसमूह के कर्तव्यों कालमें मनुष्यको किसी भी ग्राह्य अथवा अग्राह्य का ध्यान रखते हुए ही उन्होंने भोजनके नियम भोजनसे पाप नहीं लगता। महाभारतमें उदा. भी बनाये थे। उदाहरण के लिये विद्यार्थियों, हरण भी मिलता है कि अकालके समय विश्वा- ब्रह्मचारियों तथा ब्राह्मणोंके लिये जिनको केवल मित्रने डोमके घर तकका श्वान-मांसका भक्षण मस्तिष्क का ही अधिक काम करना पड़ता था किया था किन्तु फिर भी उनकी गणना पतितोमें और शान्त-प्रकृति ही जिनका मुख्य गुण होना नहीं की गई। चाहिये ऐसों के लिये सात्विक भोजन होना नाद्यादविधिना मांसं विधिज्ञोनापदि द्विजः। चाहिये । दूध, घृत, फल दही, शाक इत्यादि इस वेदमें कहा गया है कि अतिथि-सत्कार के लिये श्रेणिके भोजन हैं। क्षत्रियों तथा राजकर्म | पशुओके मारने में दोष नहीं है। गर्भवती स्त्री चारियोकेलिये राजसिक इत्यादि पदार्थ उपयुक्त गर्भरक्षाके लिये त्याज्य वस्तुओका व्यवहार कर कहे हैं क्योंकि इनमें उत्तेजनाकी भी आवश्यकता | सकती है। प्राचीन ऋत्विज मांस तो स्वयं खाते अनिवार्य है। सन्यासियोको इन्द्रिय-दमनके | थे और रक्त राक्षसोंके लिये फेंक देते थे। शाक्तो- कारणसे रूखा सूखा स्वादहीन भोजन करना पासनाके पाँच कर्मों से मांसाशन प्रथम और चाहिये। मत्स्याशन दूसरा है। भारतवर्ष ऐसे धर्म-प्रधान देश में स्वास्थ जिस मनुस्मृतिके आधार पर मांसाहारका अथवा वैद्यकसम्बन्धी अन्नका जो महत्व है | समर्थन किया गया है उसीके श्राधार पर मांसकी उसको भी धर्म-रूप दे डाला है। बहुधा हिंदुओं निन्दा भी की जासकती है। में मांस वर्जित है और यह भी उनके धर्मका एक नाकृत्वा प्राणिनां हिंसा मासयुत्पद्यते क्वचित् । अंग हो रहा है चाहे ग्रंथकारोंने यहाँकी श्रावहवा न च प्राण्विधः स्वय॑स्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ॥ का ध्यान रखके ही इसको वयं माना हो। यही (मनु ५,४८) कारण है कि आज भी उच्चवर्गके हिन्द मांसाहारी अर्थ:-बिना प्राण-हिंसाके मांस प्राप्त नहीं हो नहीं होते। बहुधा वे शाकाहारी होते हैं। मांस सकता और प्राणियोंका नाश करना स्वर्गका के अवगुणों को देखकर अमेरिका तथा योरप में वाधक है। अतः मांसको छोड़ दे। भी अनेक वर्ग केवल शाकाहारी होते जाते हैं। स्वमासं परमांसेन यो वर्धयितु मिच्छति । बहुत सी जाति में "अहिंसा परमो धर्मः" के अनभ्यर्च्य पितृन्देवांस्ततो-यो नास्त्य पुण्यकृत् ॥ आधार पर मांसाहारका निषेध है।। (मनु ५, ५२) यदि भारत-धर्म-सम्बन्धी पुस्तकों में एक अर्थः-अपने शरीरकी पुष्टिके लिये जो दर और मांसका निषेध है तो दूसरी ओर काल के शरीरके मांसको विना देव-पितरोको चढ़ाये अवस्था अथवा प्राण रक्षाका विचार रख कर हुए भोजन करता है उससे बढ़कर पापी नहीं। उसका व्यवहार अधर्म-संगत भी नहीं है। अतः यह स्पष्ट है कि भोजन-सम्बन्धी नियम मनुने ही कहा है:- अवसरको देख कर ही हिन्द-धर्ममें रखे गये हैं। क्रीवास्वयं व्याप्युत्पाद्य परोपकृत मेव च । बौद्ध-धर्ममें इसका निषेध तो है किन्तु साथमें देवान पितॄश्चार्ययित्वा खादन्मासं न दुष्यति ॥ यह भी कहता है कि यदि स्वयं मांस लानेमें भाग (मनु ५,३२) नहीं लिया हो अथवा अनजानमें मांस खा ले तो नियुक्तस्तु यथा न्यायं यो मांसं नात्ति मानवः । पाप नहीं होता क्योंकि ऐसी अवस्थामें हिंसाका