पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/२६९

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त्र्त्रकुत…हिन्तुओका यह एक प्रलिद्धत्योहार है । यह उत्सव कार्तिक मास मैं दीपात्रलीके दुसरे दिन प्रतिपदा को मनाया जाता है । इसको कथा सनंकुमार संहिताके कातिफ मह्त्म्य मैं दो हुई है । इस दिन नाना प्रकार के उत्तमोत्तम प्रकाश तथा भोजन बनते है । गोवर्धन पूजा ही इस उदृरुस्या प्रधान है । गोवर्धन एक पर्वत है जिसका उल्लेख कृष्णरुथत में है। इस कि कथो इस भाँति है कि एक बार कार्तिकौय प्रतिपदाको सहृस्त्रोग्वालजन भाँति माँतिकै भोजन स्नाक्रर 'गोगर्घनके समीप धन मैं गये हुए थे उनकों हेखक्रर श्रीकुष्णने पृछा कि ये लारा किस कारणसे इत्तनी साममी लेकर श्रये है । उन्हें उन ग्वालोंसे यह विदित दुआ कि वे सध इन्द्रकी पुछा की तययरियाँ हैं चयोंबि उन ग्वालोंकी ऐसी धारणा दी किमून्द्रपूजासे सूखा श्रथवा श्रघिक बुधि द्वारा श्रकाल नहीं पढ़ सकता और देश धक्याग्य सापन्न पहला है । उन ग्वालीने रूपसे भी उस पूजामैं आग लेनेका श्राग्रह किया। कृष्णने उनकों समझा कर कहा कि ऐसे देवताकी पृजासे क्या लाभ जोहैसाक्षातूजहूँक्वें द्देदृ न तुम्हारे श्र्त्रको ग्रहण करता है। तुम "गोव्धेन की पूजा पेयों नहीं करते जो साक्षात् यहीं विराजमान हैं और जिससे लाभ भी तुम्हे श्रधिक होता है श्रोर जो तुम्हारी अथवा तुम्हारे पशुश्रोकी रक्षा तथा पालम करता है । करके समझाने पर गोवर्धन की ही पूजा की गई । जव नांरद द्वारा इन्द्रको यह समाचार विदित हुआ तो क्रद्ध हो भयंकर वर्षा करने लगा, किन्तु कृद्ग्रने श्रहैनी तर्जमी पर गोधीङ्को उठाकर सव ग्वांसोकौ रक्षा की अच्छी कृष्णकी ईश्वरीय सचा देखकर तथा अपने कार्य परले-कि-पूत होकर इन्द्र दमायाचना करने आया । इन्द्को कमा वर विदा करने पर श्रीकृशरने उनलोर्गों को प्रति वृर्ष गोवर्धन पूजा श्रोरे श्रत्रकुंटोल्सव मनानेका आदेश किया । कुशरा ने यह भी कहा कि भक्तिपृर्वफ प्रति वर्ष गोवर्धन पुजा करने-वाले पुत्र; पौत्र, धनधान्यसे सम्पन्न रहैंगे। उनके ऐश्वर् तथा सौख्यकौ प्रतिदिन वृध्बि होती रेहेगौ । फलस्वरुप श्राज भी भारतकै कौने पौनेर्मे श्रत्रकूट श्रोर गोवर्धन पूजाका उत्सव ड्डदृत्येफ हिंदू मनाता है श्रत्राह-यह तॆलाक जातिका ब्राह्मण बदा भारी नॆययथिक ही गया है । इसका ज्ञन्म निजंत्मअखी-णासिंत तैसंगणके गरिकपाद नामक गावमे ,। 'इल्का ठीक ठीक समय तो नहीं कहा जा सकता किन्तु शालित्राश्चाफी पन्द्र- हर्वी शताब्दोंमैं जिस समय चालुक्य यशिके राजा राज करते ये. उस समय इसका उदय हुआ था कोडिव्यपुर ( कौउवीदृ ) की संस्कृत पाठशालामें वारहवर्ष तक इसने न्यायशास्त्रका श्रध्ययन करके अच्छी योग्यता प्राप्त की । इसोने श्राजकलकै सुविऱयात प्र्ध "तर्दसंग्रह" की रचना को थी। न्याद्रशास्त्रकें विष्य तथा सिद्धाक्रतोंकों संक्षेप है इसने बडी उत्तम रीतिसे दर्शाया है । इस विषय का प्रारम्मिक-ज्ञान प्राप्त करनेके सिये यह पुऱतफ श्रद्वितीय…है इसके पश्चात् इन्होंने अपनी स्वयं एक पाठ- शाल । कोली जिसमेँ न्यायशरिमं१ उष शिक्षा दी जाती थी । त्तवरैदीपिका; मुक्तावली तथा गदा- धारी आदि ग्रथोंकौ बडे परिश्नभसे पकाकर: इस शारूके अनेक उत्कृष्ट विद्वान बनाये। यह ५५ पर्दकी अवस्था मैं श्रीलेत्र मखिकार्मून के दर्शनकेलिये गये थे । ऱरुके श्रतिरिक्त इन्होंने कदाचित् ओर कोइ यात्रा नहीं की । यह अत्यन्त सन्तोपीशीये श्रोर अपने सामान तथा आत्मगौरव का विशेष ध्यान रखते थे । इतने न विद्वान् होते हुए भी यह कभी किसी राजासे मिलने नहीं गये, न कभी किसीसे कोई सहायजाकी ही प्रार्थना की । पिताका छोडा हुआ थोडा सा ही धम ही इनके जीयगयापनके लिये पर्यास था नित्य हेघदर्शन तथा सायंप्रात: दो दो घएटे स्नान संध्या पूजा पाठके अतिरिक्त यह अपना सापूणे लमय विद्याधियोंके पढ़लेमें ही बिताये थे । कहा जाता है कि सन्तान तो इन्हें कई हुई फिन्तु पूनकें अन्तकालके लिये कोई भी नहीं बचा था श्रत्रप्याचारी……इनकी जाति तथा कुल का तो पूरा पूरा निश्चित बसे कुछ पता चलता महीं है । कुछका मत्त है कि यह तैलम्न जातीय वाहाण थे किन्तु इतके लिये कोई निश्चित प्रमाण नहीं दिया जा सकता । यह धारणा केंवल इसी अपर पर है कि इन्होंने तैरुश्ती भाषामे 'पितामह चरित्र' नामक पुस्तक दो भागौपै लिखी है जिसमें सृष्टिर-चयिता व्रहारफा वरगेन है । पुस्तक उच्च कोटिकी लिखी हुई है, ओर इसके रचयितके नाले ही यह प्रसिद्ध है । इनका ठीक ठीक कात भी निर्णय करना कठिन है श्रत्रव्रसू---( रोटी-कपडा, गुजारादृ)-बो व्यक्ति किसी काररगवश अपनी वृत्ति श्रर्जन करनेमैं अशक्त होजाता है उसे अपने भरण गोवा-: लिये दूसरों पर आश्रित रहना पढ़ता है । उस 'दशमैं