पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/२८२

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शोण हो डाली है, अथवा जव किसी विशेष चिन्ता भय अथवा शोकंसे शरीर तथा वित्त दीनोंही दूषित रहने लगते हैं, तो उसका प्रभाव भनुष्यके अहिटष्क पर भी पड़ना हैं, ओर यदि वह उसकी सदृन-शक्तिसे अधिक पुआ तो मनुम्यको यह रोंग हो जाता है । रेतो अवस्थामे मनुष्य बिलकुल मूढ़ सा हो जाता हैं. तथा नाना प्रकारकै उपद्रव काने उगताहै, बैतन्यावरथाका बिल्कुल लोप हो जाता है । यह पाँत फटकटाने खुगटा है. अवसर मिलते पर काट भी खाता है, मुँहसै फेन तथा लार निकलने लगती है; मूयिपर हाथ पैर जोर- ओरसे पटकता है, शरीर चुनता है. ओर धीरे २ उसकी आँखें तथा मों तन जातो हैं ओर भयंकर दीख पड़ती हैं । कुछ समय तक यही अवस्था रदृनेकै पश्चात्दोषका बेग कम पड़ने पर वह शान्त हो जाता है ओर ’घोरे-धीरे चैतन्यताफी प्राप्त कर लेटा हैं । इस रोगये मुरुप पात यह है कि रोगौकौ इस मात्रका श्यान बिलकुल नहीं रहता ३ फि षद कहाँ है कौन है, ओर क्या कर रहा है मूच्छसिं यह रोग मिस हैं । क्योंकि मूउहाँ आने पर मनुष्य संडाहीन होकर निरचेष्ट भी हो जाता हैं ओरफिसौ भी किया करनेर्मे असमर्थ हो जाटाहै इसके वैद्यक शाखमें चार भेकृ किये गये हैं… १ 1 बातजनित, [ २ ] पित्त-जनित्त, [ ३ ] कफ जनित तथा सू ४ ] सथिपात-जनित 1 बात, पिस, कफ, किसी पकके बिकारते भी यह रोग उदृषन्न हो सकता है, अथवा इन तीनोंके दाम [ सभिग- सिफ ] ले भी दो जाता हैं इस रोगकै साधारण शक्य तो गइले ही से अनुभव होने लगते हँ । हटफम्पन, जड़ता, भ्रम, आँखीकै सामने अँधेरा दिखाई देगा, विषमे धय- रादटका अनुभव, आँबों का ऊपरकौ ओर तवसे हुए मालूम हाना, कानमैं भनभनादृट सुनाई देना, पैठे-बैठे पसीना लूटने लगना. इत्यादि किंयांओसै रोगीकौ इसका दारा होनेका पहले ही से अनुभव होने शक्या है । अपच, अरुचि, मूदृर्वा, शक्रिढास नोंदका न आना, शरीर सईम टूटते १६१३, होठ तथा गला सूखते रहना, निदान सदैव भयंकर स्वरुन देखते रहगा, इत्यादि इस राग रानेकै सूचक हैं बिन रीगियोंकों वायकारसे यहरोग उत्पन्न हो जाता है, उनका शरीर ओर विशेषकर पैर गौने लगता है. बारम्बार मूच्छी आने उगती है रोने अथवा कसने लगता है 1 उसकी अर्बि भय"- कु कर हो जाती हैं, मुखसे केन निकलता है, शिरको दिखाने लगना है, सौपाये पच्चओंफी भाँति चलने- का प्रयत्न फरताहै, हाँल काटता है; उसकी कांकृति रुक्ष तथा भयंकर हो जानी है, प्याखकी अधिकता रहनी है, इत्यादि इत्यादि कफ विकार द्वारा रोग व्लाक्ष होनेसे क्व कालके वाद रोगी भुक्ति हो जाता है, और पडी देरके वाद वह तोशमैं आता है । आरम्भमें ही ओड़ा हाथ पैर पटकता है मुजखे लार तपा जैन अधिक निकक्षतंहुँ है । माँस, नाखून सया मुरा श्वेत पड़ जाते हैं । रोगीको स्वयं भी सव सफेद देख पड़ता है सन्निपातिक अपस्यार सबसे भयंकर समझा जाता है । इसमें उपरोक्त सभी लक्षण देख पड़ते हैं । इसका रोगी कडिकांल्ले ही साध्य होता है अपस्थारका किसी अंश वृक पपिलेप्लीद्विह्मद्र- 1९स्थ्य)से सादृश्य फद्द सकते हैं. यद्यपि उजिश तो यहीं फ़मुना होगा कि एपिसेप्ली अपख्यारका एक भेद विशेष है । इसमें बहुधा रोगी आरम्भमें गोजा देर तक हाथ पैर पटक कर बेहोश हो जला है । इस रोगमें यह आवश्यक नहीं है कि शरीर के किसी भागमे कोई विकार स्थान रूपसे हो ही पेसे अनेक रोग हैं जिनमें शरीरके अभ्यन्तरयें कोई विकार न होते मुए केवल क्रियायें ही दोष देख पड़ता है । आण-वमुधा पुक्योंकौ अपेक्षा यह रोग स्रियों- कौ विगेष रूपसे होता दुआ देखा गया है । कुछ रोगियीकै विघयमै यदि यान प्राप्त किया जाय तो यह पता लगेगा फि इस रोंगफा प्रादुर्भाव ७८। प्रति- शत या तो माल्यस्वस्थामे अथवा युवावरुथाकै आरम्भमैं ही दो ज्ञाता है । इस गेगका लड़ते नाश होना गडा कठिन हैं; अत: देथा गया है कि जिनको एक यार भी हीं जाता है ये सम्पूर्ण आयु भर नुसते पीडित हाते रहते हैं । फिन्तु इससे मृत्यु यद्भुत कम होती हँ । अन्तमैं मनुष्य किसी आय रोगसे पीडित हाकर हीं मरता हैं । फुस रोडाका संबंध वंश अथवा माता-पिटाखे षदुत्त समस्य रखता है । गमुधा ऐसा हीं देवा गया है फि जिनके माता-पिताकौ यह रोग था उबाउ क्लोमे भी किसां-फिसी हो जाता है । माता- पिद्देच्चके अनेक दोर्षोंखे भी उनके पंशुजोको यह रोग हो जाता है है वसुधा भाता-पिताओं काई रोग न माने पर भी वास्वायस्थाकी फुवृसिर्यों द्वारा,