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तक दौरे होने लगते हैं। यदि दौरा कड़ा हो जाता है तो कुछ दिन तक के लिये रोगी को छुट्टी मिल जाती हैं। मद्य सेवन , अति मैथुन , अति अहार , मानसिक तथा शारीरिक परिश्रम के अधिकता से दौरे अधिक होने लगते हैं। बहुधा देखा गया है कि रजस्वला काल में स्त्रियों को अधिक दौरे होते हैं।

   उग्रापस्मार - जब रोगी को निरन्तर ही दौरे होते होते ज्वर आने लगता हैं , तो रोग असाध्य सा हो जाता है। उसमें बहुधा मृत्यु भी हो जाती है। देखा गया है कि जिन दिनों दौरे नहीं आते , रोगी हृष्ट पुष्ट तथा बिल्कुल स्वस्थ देख पड़ता है। किन्तु जब दौरे जल्दी जल्दी आने लगते हैं , तो रोगी की अवस्था भी बिगड़ने लगती है। उसका स्वभाव चिड़चिड़ा तथा उदास हो जाता है। उसका मन तथा हृदय अत्यन्त दुर्बल हो जाता है। उसकी बुध्दि तथा स्मरण शक्ति का नाश होने लगता है , और कभी-कभी तो पागल तक हो जाता हैं। उग्रापस्मार के अतिरिक्त इस रोग से मृत्यु कठिनता से ही होती है , किन्तु दौरे में बहुधा अन्य कारणों से रोगी की मृत्यु तक हो जाती है। अचेत होने के कारण बहुधा पानी में डूब कर , ऊंचे से गिर कर,आग से जलकर , अथवा ऐसे ही अनेक कारणों से रोगी मर जाता है। पहले से कुछ अनुभव न कर सकने के कारण अक्सर चलते चलते , साइकिल पर घूमते घूमते , भोजन बनाते बनाते तक दौरे हो जाता है , जिससे भयंकर परिणाम हो जाता है। ऐसा अनुभव है कि अनुभनवेन्द्रिय अथवा में दू में कुछ विकार हो जाने से यह रोग हो जाता है , क्योंकि इसी के विकार से हाथ पैर पटकना संभव हो सकता है। बेहोशी होना भी इसी मत की पुष्टि करता है। 
   रोग निदान - यदि रोगी को दौरे की अवस्था में देखा जाय तो रोग का निदान किया जा सकता है। बिना ध्यान पूर्वक देखे उन्माद अथवा इस रोग के दौरे में सन्देह हो सकता है। उन्माद के दौरे में रोगी किसी एक ही क्रिया को बराबर करता रहता है , दौरा भी अधिक स्थायी होता है। यदि रोगी को शारीरिक पीड़ा पहुँचाई जाती है तो वह उसका अनुभव करता है। किन्तु इस रोग के दौरे में दॉंत बैठ जाते हैं , चेहरा काला हो जाता है और मनुष्य अनुभव शून्य हो जाता है। बहुधा नीच प्रकृति के मनुष्य स्वार्थ साधन के लिये इस प्रकार के ढोंग भी रचते है ,  किन्तु इसका पता बड़ी सुगमता से लग जाता है। ऑंख इत्यादि को देखने से , सुघनी सुघाने से अथवा शारिरिक पीड़ा से लग जाता है। 
   रोग के अनेक कारण होते हैं , और सबसे पहले इसी बात का निश्चय कर लेना आवशयक है कि रोग मुख्य कारण , अथवा दौरे किस प्रकार के हैं। बहुधा इसका आरम्भ रात को सोते सोते भी होने लगता है और शुरू में इसका पता भी नहीं रहता। ऐसी अवस्था में यह पूछना चाहिये कि रोगी को सुप्तावस्था में बिछौने पर ही तो मूत्र त्याग तो नहीं होता है।
   साध्यासाध्य बिचार - जिसको बाल्यावस्था ही से यह रोग हो जाय और युवा होने तक अच्छा न हो तो फिर अच्छा होने का बहुत कम आशा रह जाती है। यदि रोग बड़े होने पर ही आरंभ हुआ तो अच्छे होने की आशा की जा सकती है। यदि दौरे केवल दिन अथवा रात्रि को ही अथवा नियत समय अथवा अथवा अवधि पर आते हों , तो भी साध्य हो सकते हैं। जिन लोगों को मिश्रित दौरे आते हैं वे दुस्साध्य समक्तने चाहिये। जिस प्रकार के दोरे में अनुभव शक्ति का पूर्णतया लोप नहीं हो जाता , वे सुसाध्य कहे जा सकते हैं। बहुत से रोगी केवल नियमित जीवनचर्या करते  रहने से भी रोगी से छुटकारा पा जाते हैं। दवाई से तो रोगी जड़ से बहुत कम बिल्कुल अच्छे हो पाते हैं। यदि खानपान , मैथुन इत्यादि में तनिक भी अनाचार हुआ तो ऐसे मनुष्यों को रोग फिर से धर पटकता है।
   औषधोपचार - औषधि से बहुधा तो दौरे में तात्कालिक लाभ पहुँचता है , किन्तु बहुत काल तक नियमित रूप से चिकित्सा करते रहने से कभी कभी लाभ हो जाता है। इसके रोगियों के लिये बहुत सी नैसर्गिक बातें भी औषधिक के साथ साथ अत्यन्त आवश्यक है। उनको हलका तथा पौष्टिक भोजन व्यवहार में लाना चाहिये। ताजा फलों का अधिक सेवन करना चाहिये। सूर्य प्रकाश तथा शुध्द वायु उनके लिये नितान्त आवश्यक है। यदि उनके नेत्र , दॉंत , पेट में कोई विकार हो तो उनका उपाय करना चाहिये। मॉंस मदिरा अथवा कोई भी उत्तेजक पदार्थ व्यवहार में न लाना चाहिये। बहुत अधिक भोजन न करना चाहिये। रात्रि का भोजन सोने से कम से कम तीन घण्टे पहले करना चाहिये। परिश्रम भी नियमित और हलका करना चाहिये। क्रोध , चिन्ता तथा उत्तेजना से