पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/२९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गलाकर पेशी होती है और उसमे जननपेशी की निश्चित संख्या बहुधा आठ होती है। दूसरी भिन्न भिन्न आकार की चार पेशीयों के एक ही भाग पर अथवा एक पेशीमय भाग पर जनन पेशियों की एक निश्चित संख्या बहुधा चार होती है। अन्य जनन पेशियॉं उस भाग पर कलिका के समान निकलती हैं।

    इसका प्रथम आन्तरिक भेद - इस में संयोगिक इन्द्रियां रहती हैं। रज का रेत से संयोग होने पर उससे उत्पन्न होने वाली जननपेशी मूल वनस्पति से अलग न होकर वहीं रहती हैं और उससे वहॉ पर तन्तु उत्पन्न होते हैं और उनमे अयोग सम्भव जननपेशी निकलती है। ये तन्तु और पहले के तन्तु मिलकर कभी २ एक फल के समान पदार्थ तैयार होता है। इसके दो बिभाग किये जा सकते हैं-पहिला तो तन्तु से संयोगिक इंद्रियां उत्पन्न होना जिसे लिंग पीढ़ी कहते है, तथा दूसरा इसके संयोग से होनेवाली जननपेशी से तन्तु उत्पन्न होकर उन में अयोगसंभव रीति से जननपेशी का निकलना;जिसे अलिंग पीढ़ी कहते हैं। इस बारे में तथा इन के बारे में यह जाति लाल वनस्पति के सद्दश है। अयोगसंभव उत्पादन में एक पेशी के केन्द्र के आठ मिन्न होती है। ये बहुधा एक के आगे एक नथे हुए पेशी में रहते हैं। इस पेशी के टोंक फटने पर वे बाहर निकलती है और वायु के साथ उड़ जाती है। बरसात में बूटपर ,पड़ता है वह इसी जाति की एक वनस्पति है। ये बहुत छोटी होती हैं। एक प्रकार का ऐसा ही भूरा सा धान्य पर आता है। यह अत्यन्त औषधोपयोगी है। इससे अरगाट नाम की औषधि निकलती हैं।
  इसी जाति में किणच नामक बनस्पति का समांवेश होता है। यह बनस्पति पेशिमय है। इसका आकार गोल अथवा लम्बाई लिये गोल होता है। प्रत्येक पेशी में एक केन्द्र रहता है। इसका उत्पादन प्रायः वनस्पतिक रीति से होता है। पेशी में कली के सद्दश प्रथम एक फुँदनी निकलती है और बढ़ते २ उसीकी एक स्वतन्त्र पेशी हो जाती है। ऐसी अनेक पेशियां एक दूसरे से चिपकी रहती है और उन से एक जंजीर तैय्यार होती है। जिस जगह ये रहती हैं