पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/३०२

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सेमके मध्य भाग में एक खडा तन्तु रहता हैं । स्थारगू के नीचे हिस्से में कुछ छेद रहते हैं । उसमें नास्टाँग नाम के नील वनस्पथि के तन्तु रहते हैं । चौथे भाग में कई एक में पत्ते और तने अच्छी रीति से भिन्न भिन्न दिखलाई पडते हैं । कई एक में मुख्य भाग स्थाणु रूप ही रहता हैं । इनमे स्त्री और पुरुष अवयव भिन्न भिन्न स्थान में निकलते हैं किसीपर वे दो पत्तों में आते हैं, तो किसीपर अग्र भाग में आते हैं । उनके आने के इन स्थानों से उनमें भेद किये हैं । संयोग से एक फल सहश भाग होता हैं और उससे पंखों से युक्त जननकोश तैय्यर होते हैं । (२) शैवाल- ये वनस्पतियाँ, जहाँ सर्वदा पानी के गिरने से जमीन भीगी रहती हैं, वहाँ, या बरसात में खुली जगह में अथवा वृक्षों वगैरह पर उगती हैं । ये साथारण तथा एक या डेढ ऊँचायी की होती हैं । इनको उखाड कर देखने से एक तना, उसीपर पत्ते और नीचे जड के समान तन्तु दिखलाई पढते हैं । पत्ते तने के चारों तरफ करीब करीब वर्तुलाकार में निकले रहते हैं । कभी कभी तना जमीन पर तिरछा फैलता हैं । तब यध्यपि पत्ते सब ओर से निकले रहते हैं तो भी वे दो तरफ मुडकर ऊपर आते हैं, और इस कारण उतना भाग अलग दिखाई पढता हैं । तनों की भीतरी, बनावट बिलकुल साथारण होती हैं । कुछ वनस्पथियों के मध्य भाग में स्तंभ सहश एक कोशजाल होती हैं । यह लम्बे बढे हुए कोशों का एक बढा समुदाय रह्ता हैं । इसकी अपेक्षा इसमे अधिक विकास नही हुआ रहता । इसमे से पोषक द्रव्य बहता हैं । किसी २ वनस्पथियों के तने में कुछ छिद्र रहते हैं । इलमे से हवा भीतर बाहर जाती हैं । पत्तों की रचना भी बिलकुल सादी होती हैं । उनमे भी केवल लम्बे कोश रहते हैं । इनमे से पत्तों को पानी मिलता हैं । जड के समान तन्तु होते हैं । वो भी सादे कोशों के होते हैं । उनमें डालियाँ(शाखाएँ) निकलती हैं । प्रायः संयोगिक इन्द्रियाँ अग्र भाग के पास पत्तों के गुच्छों में निकलती हैं । दोनों प्रकार की इन्द्रियाँ एक ही वनस्पथि पर निकलती हैं, परन्तु किसी किसी में अलग अलग भी निकलती हैं । फल सहश भाग, अर्थात अलिंग पीढी, की भिन्न भिन्न वनस्पतियों में बहुत कुछ अंतर हष्टिगोचर होता हैं । उनके इन भेद से उनकी जातियाँ ठहरायी गयी हैं । सरसरी तौर से देखने पर वह भाग कवच सहश मोटी त्वचा से अच्छा दित और आकार में लंबा मालूम पडता हैं । उनमें बीचो बीच खडा एक बहुकोश्मय भाग रहता हैं । इनमें पोपक द्रव्य होते हैं और चढने वाले जनन कोशों को उनसे पोषण मिलता हैं इनके बाहर चारों तरफ जननकोशों की थैली होती हैं । उनमे जननकोश तैयार होते हैं । इसके समोपही एक जल को इकठ्ठा करने वाला कोशजाल होता हैं । कुछ में इस भाग में एक लंबा डएठल होता हैं, और उसपर वह ऊँचा उठा रहता हैं । परिपक होने पर उसके ऊपर का भाग ढक्कन की तरह फट जाता हैं, और भीतर से जननकोश बाहर निकलते हैं । कुछ में तो वह ढकने की तरह नहीं किन्तु पूरा ही दो भागों में फाँकके सहश फट जाता हैं । कुछ में बिलकुल ही न फटकर नष्ट हो जाता हैं । जनन कोश से प्रथम तो तंतु उत्पन्न होते है फिर इन तंतुओं पर कलिकयें उत्पन्न होती हैं । उसीसे सेवार उगता हैं । (३) इन वर्गों में स्थल जल अश्वपुच्छ और मुद्रल ये चार जाति की वनस्पतियाँ होती हैं । ये सब अपुष्पवर्ग में अधिक विकास पायी हुयी हैं । सेवार वर्ग की तरह इन वर्गों में भी दो पीढियाँ उत्तम प्रकार से दिखायी देती हैं । प्रथम लिंग पीढी पर स्त्री और पुरुष दोनों इंद्रियों निकलती हैं उनके संयोग से अलिंग पीढी उत्पन्न होती हैं । इस पीढी पर जनन कोश निकलते हैं और उनसे फिर पहले की तरह लिंग पीढी निकलती हैं । यह बिलकुल छोटा और चौथाई इंच से लेकर आधे इंच तक का होता हैं । कुछ जातियों में यह यकतक वनस्पति के सहश दिखायी पडता हैं । यह पत्तों की तरह चिपटा और हरा रहता हैं । इसका आकार करीब २ अरुई के पत्ते की तरह रहता हैं और उसके नीचे के भाग में तंतु निकलते हैं और जमीन में घुसते हैं । इनमे से किसी किसी में शाखायें निकलती हैं और किसी