पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/३०४

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और कुछ का जमीन का ऊपर रहता हैं । दूसरी श्रेणी में सभ प्रकार के नेचों का समावेश होता हैं । इनमें की सबसे बडी जाति उष्ण कटिबन्ध में होती हैं । बहुत सी जातियां छोटे पौधों के सहश होती हैं । किन्तु कुछ बडे पेडों के सहस क्पोती हैं । यह सिहल द्वीप में बहुतायत से हैं । नीलगिरि पर्वत पर उटकमंड के प्रसिद्ध बाग में बहुत सी इसी श्रेणीकी समान जातियां हैं । सह्याद्रि के कैसलराक जंगल में भी ऐसी बहुत जातियां पाई जाती हैं । ये दस बारह फीट ऊंची होती हैं । इनमें शाखियें नहीं लगतीं । इनके सिरे पर लंबे संयुक्त का एक गुच्छा होता हैं । ये पत्तियां अंतिम कली से एक के ऊपर एक उतपन्न होती हैं । पत्तियां सूखने पर नीचे गिर जाती हैं और उसने एक बडा ब्रण तने पर हो जाता हैं । जो छोटे पुच्छ को तरह रहते हैं उनका मुख्य तना जमीन पर फैला हुआ अथवा कभी कभी जमीन के नीचे से टेढा बढता हैं । इनके सिरे पर संयुक्त पर्णों का एक गुच्छा रहता हैं । पत्तियां जब छोटी रहती हैं तभी से अग्रभाग से लेकर डंठल तक घडी के स्प्रिंग के सहश लिपटी हुई रहती हैं । सब नेचों में और जल नेचों में यह बात विशेष हैं । कुछ वनस्पतियों के पत्ते साढे रहते हैं और विभक्त नहीं होते किन्तु पूरे के पूरे होते हैं । उष्ण प्रदेश में कितनी जातियां दूसरे वृक्षों पर अर्धाश परोपजीवी वृत्ति से रहती हैं । उदाहरणार्थ - मर्कट वाशिंग, नाम का पौधा ऊँचे वृक्षों पर पाया जाता हैं । कुछ पत्तों पर, तनों पर या पत्तों के डंठलों पर एक विशेष प्रकार की सुघनी रंग की वल्कें रहती हैं । इसमें जननकोश के जुच्च्गे बहुत होते हैं । वे पत्तों के पृष्ठ भाग पर निकलते हैं । जिन पत्तों पर जननकोश के जुच्छे निकलते हैं वे इतर पत्तों से भिन्न नहीं होते । बहुत थोडी अपवादात्मक वनस्पतियों में दो प्रकार के पत्ते भिन्न रहते हैं । भिन्न भिन्न जातियों में उनकी रहन सहन, आकार तथा रचना में बहुत अंतर दिखाई पडता हैं । अनेक जननकोश के गुच्छों का एक संघ पत्तों के पृष्ठ भाग में एक छोटी गद्दी पर निकलता हैं । तदनन्तर इस पर एक महीन आवरण आता हैं । प्रत्येक जननकोश के गुच्छे पत्ते की त्वचा के एक कोश से तैयार होता हैं और इसमें बहुत से जननकोश होते हैं । जननकोश का सर्वसाधारण आकार गोल होता हैं । उनमें कोश के अतिरिक्त बिलकुल पतला लम्बा डंठल होता हैं । इसपर जननकोश गुच्छा रहता हैं । यह एक फूलनेवाले थैली होती हैं । इसके डंठल से ऊपर सिरे तक और वहां से दूसरी तरफ करीब आधे भाग तक विशिष्ट कोशों की एक पंक्ति होती हैं । इन कोशों की त्वचा बहुत मोटी होती हैं । कितनों में तो इस मोटी त्वचा के कोशों की पंक्ति दूसरी तरफ मध्य भाग पर नहीं ठहरती किन्तु सीधी नीचे आकर डंठल से मिलती हैं और इस पंक्ति की एक पूर्ण कडी बन जाती हैं कुछ में ये कोश निचे डंठल से डंठल तक नहीम रहते किन्तु केवल ऊपर सिरे पर रहते हैं । और कई एक में यह पंक्ति न होकर उसके बदले मध्य में दोनों तरफ मोटी त्वचाओं के कोशों का उपयोग जननकोश के गुच्छों के स्फोटन के काम में आता हैं । कोशों में का पानी कम होकर उनकी त्वचा सिकुडती जाती हैं और इस कारण जननकोश के गुच्छे के मध्य भाग में एक दरार पड जाती हैं । इस दरार में से जननकोश बाहर निकलते हैं । जननकोश के गुच्छे के आकार, और उसके ऊपर के आवरण इत्यादि से भिन्न भिन्न नेचों की पहिचान होती हैं । बीच की शिरा के दोनों तरफ तिरछी शिराओं पर प्रायः ये उगते हैं । कई एक में ये संघ सीधो रेखाओं के सहश रहते हैं । कितनों में तो चन्द्रकला की तरह रह्ते हैं । कई एक में पूरे वर्तुल की तरह, तो कई एक में अर्ध वर्तुल की तरह होते हैं । कई एक में पत्तों की ओर से खडे लम्बे डंठल के अग्र भाग तक दोनों तरफ दो अखंड पंक्तियां होती हैं । पत्तों की तरफ किंचित मुडकर वे ढक जाती हैं । ऊपर का आवरण कई में एक होता हैं तो कुछ में नहीं भी रहता, किसी में आवरण सब तरफ से चिपका रहता हैं और कुछ में एक एक ही तरफ से चिपका रहता हैं तो कई एक में केवल बीच ही में चिपका रहता हैं । इस प्रकार से आवरण में भिन्नता के आधार पर अनेक भेद हैं । बहुधा पुरस्थाणु हृदय के आकार का अथवा ताशों के पान के सहश होता हैं । उसके नीचे की तरफ स्त्री और पुरुष इंद्रियां होती हैं । कई एक में यह तंतुमय होता हैं और सेवार के जननकोशों के तन्तुओं के सहश दिखायी देता हैं । उसके तिरछे भाग पर दोनों इंद्रियां निकलती हैं । तन्तुओं के बीच में रेत की डिबियां होती हैं और उसके ऊपर और स्कन्धों के पास रज की डिबियां होती हैं । रेत की डिबियां गोल होती हैं और पुरस्थाणु