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पर्वत में निम्नलिखित स्तरों का समावेश होता है-(१)विस्तर (ट्रयासिक),(२)जुरीन (ज्यूरासिक), (३)सीतोपल (केटेसियस),(४)नव प्रभात (एओसोन) तथा (५)नवपूर्व (मिओसीन)! नवप्रभात काल में एक स्तर पर दूसरे स्तर के चढने से पर्वत श्रेणी तय्यार हुई, समुद्र छिछला हो गया,और काक्रो मेटेटिक भूपटल के कारण उनकी रचना ऐसी हुई। इस प्रकार स्तर पर स्तर होते जाने से इनकी उँचाई अधिक हो गई और अनेक तालाबों का प्रादुर्भाव हुआ,द्वितीय तथा तृतीय कालीन स्तर समुद्र में डूब गये। इस पर बरफ नहीं जम पाती।


इन प्रदेशों की उन्नति में मुख्य दो अडचने हैं। एक तो इसकी प्राकृतिक रचना दूसरे व्यापारिक साधनों का अभाव इसकी उन्नति में बाधक हो रहे हैं। योरोपीय महायुद्ध के पश्चात् अदन की खाडी से अँडिसअवावा तक रेलवेलाइन बनजाने से, ऐसा विचार किया जाता है कि सम्भवतः व्यापार में कुछ उन्नति हो। स० १६२० ई० तक तो कुल व्यापार तीस चालीस लाख पौण्ड से अधिक का नही हो सका। यहाँ से बाहर भेजी जानेवाली मुख्य वस्तुओं में केवल चमडा, कहवा और मक्खियों का मोम ही था। सूत्री वस्त्र यहाँ अन्य देशों से बहुत आता था। यहाँ का अधिकाँश व्यापार यूनानी, सीरोयन और अरबी लोगों के हाथ में है। कृषि में भी अभी तक विशेष उन्नति नहीं देख पडती। खनिज सम्पति भी अभी बेकार पडी हुई हैं। जलप्रपात की असीम शक्ति का, जिसका उपयोग यहाँ बडो सरलता से सम्भव है, उस तक का कोई विशेष लाभ इन प्रदेशों ने नहीं उठाया।


अपोलो- ग्रीस (यूनान) देश में इस नाम के देवता का किसी समय बडा महत्व था। जिस भाँति अपनी प्राकृतिक स्थिति के कारण भारत वर्ष में सूर्य को देवता मानकर उसको पूजने की प्रथा चली आती है उसी भाँति अपनी विशेष प्राकृतिक स्थिति के कारण ही ग्रीस में भी सूर्य का विशेष स्थान होना कोई आश्चर्य नहीं है। अतः उन भावों को व्यक्त करने के लिये ही 'अपोलो' का प्रादुर्भाव हुआ और नाना प्रकार से उसकी पूजा होने लगी। 'अपोलो' का दो अर्थ हो सकता है; एक तो 'नाश करनेवाला' और दूसरा 'दुःखों को हरण करनेवाला'। दोनों ही अर्थ ग्रीस ऐसे देश में सूर्य के लिये लागू होते हैं। सूर्य प्रकाश के कारण उत्तम कसल, उत्तम आवहवा तथा हृदयों में सदा उमंगों का उठना और उसी सूर्य प्रकाश के कारण कभी कभी भयंकर रोगों का होना है। अतः 'अपोलो' के रूप में ही सूर्यपूजा होती रही। उनका विश्वास था कि भक्तिपूर्वक उसकी पूजा करने से तथा नियत समय पर उसका उत्सव मनाते रहने से उसकी कभी कोपदृष्टि नहीं होगी। इसकी उत्पत्ति ग्रीस के उत्तम तथा सुहावने समय में हुई थी और उसके कुछ समय बाद ही उसे रथ में रखकर 'हाईपरबोरियन' प्रदेश (Hyperborian) में ले गये जिसके कारण शीतकाल का प्रादुर्भाव हुआ क्योंकि सूर्य भी उसके साथ ही साथ शीतकाल में चला जाता है। ओलम्पियस (olympius) की देवसभा में उसको मुख्यस्थान दिया जाता था क्योंकि अपनी भविष्य बाणी द्वारा सब वह कुछ सूचित कर सकता था तथा सब विषयों पर 'प्रकाश' डालता था। अपनी शक्ति द्वारा दुःख, शोक तथा अज्ञान का अन्धकार दूर करता था।


बहुत से नगर इसी नाम से बस गये। इन सब का कहना यही है कि उसकी उत्पत्ति उसी नगर में हुई थी। 'लीशिया' देश में भी इसकी पूजा अति प्राचीन काल से होती चली आती है। जैन्थस तथा डेलस द्वीप में इसकी उत्पत्ति बताई जाती है। इस विषय में अनेक किम्वदन्तियाँ हैं। लेटो (Leto) इसकी माता थी। जब वह जूनो द्वारा पीडित होकर भटक रही थी तो उसे 'डेलस' में शरण मिली, ओर वहाँ जुइस द्वारा (जूपिटर) उसे पुत्र प्राप्त हुआ, जो आज तक 'अपोलो' के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी ज्न्मकथा भी बडी मनोरजक है। नौ दिन तक इसकी माता प्रसव पीडा से व्याकुल थी।अन्त में इसका ज्न्म हुआ जिससे सारा द्वीप प्रकाशित हो उठा। देव प्रिय हंस पक्षि उस द्वीप के चारों ओर सात बार मंडराते रहे। मई मास का ७वाँ ही दिवस भी था। अतः आज भी ७वाँ अँक इस नाते पवित्र तथा शुभ समभ्का जाता है। उत्पन्न होते ही इसने एक धनुष उठाया और ग्रीस के देवताओं (Oracles) में अपना सिक्का जमाने का निश्चय कर लिया। उसकी इच्छापूर्ति के लिये उसके पिता ने बाल बाँधने के लिये अभिमन्वित 'मुञ्ज मम्त्रोपदेश तथा गानविधा में प्रवीणता का आर्शीर्वाद दे, सफेद ह्ंस पक्षि द्वारा खोंचे जानेवाले रथ पर बैठाकर डेलफी (Delphi) के लिये त्रिदा किया। वे हंस उसे पहले हाइपरबोरियन की ओर लेगये, जिसका फल यह हुआ की शीतकाल का प्रादुर्भाव हुआ। यहाँ से वह डेलफी पहुँचा। वहाँ पर पहले दूसरे देवों का महत्व था किन्तु इसका शीत्रही प्रधानत्व स्थापित हो गया। उस समय उसने असीम साहस के अनेक कार्य किये। इसकी असीम