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शक्ति प्रदर्शित करने के लिये अनेक किबन्दन्तियाँ प्रचलित है। भविष्य उद्धाटन की शक्ति के साथ ही साथ गानविधा के भी प्रमुख देव का स्थान भी उसे ही प्राप्त हुआ था। इसकी पूजा अनेक देशों में भिन्न भिन्न प्रकार से हुआ करती थी किन्तु डेलफी के ओरेकल के कारण जो महत्व इसे प्राप्त हुआ वह सर्वोपरि था। इसकी स्थान स्थानपर अनेक मूर्तियाँ बनाई गई और कुछ तो उस समय की हैं जिस समय ग्रीस विकास की पराकाष्टा पर पहुँचा हुआ था।

                                                                                                                     अपोलोनिया - इस नाम से अनेक प्राचीन नगर विख्यात हैं। कदाचित इस नाम की उत्पत्ति ग्रीस देवता अपोलो के ही आधार पर हुई होगी। इन सब में विख्यात नगर इलीरिया प्रदेश का इसी नाम का नगर है। यह नगर ऑस (The Auos) के दक्षिण तट पर बसा हुआ है। ग्रीस निवासी कोरिन्थियन जातिवालों ने इसकी नींव डाली थी। जिस समय मैसिडन तथा इससे युद्ध छिडा हुआ था उस समय यह नगर एक प्रसिद्ध सैनिक केन्द्र हो रहा था। यह नगर धीरे धीरे अपनी विधाओं के लिये बडा प्रसिद्ध हो गया था। सांख्य, काव्य तथा तत्व ज्ञान का तो यह केन्द्र गिना जाता था। रोम के प्रसिद्ध अगस्टसने यहीं पर विधाध्ययन किया था।


इसी नाम का दूसरा नगर काले सागर के तट पर बसा हुआ है और श्रेशियाँ प्रान्त में उसका समावेश होता है। यहाँ एक अपोलो की दिव्य मूर्ति है। इस मूर्ति को ल्यूकोलस रोमसे लाया था।


इसी नाम का तीसरा स्थान सिरीन (Cyrene) का मुख्य बन्दरगाह है। किसी समय यह भी एक दर्शनीय नगर रहा होगा। इसका पूर्वकालीन महत्व इसकी प्रचीन इमारतों तथा खण्ड-हरों के देखने ही से स्पष्ट हो जाता है।


अप्पय्या दीक्षित- द्रविड जाति के ब्राह्मण थे। ये काक्षी नगर के समीप रहते थे। इनके पिता का नाम नारायण दीक्षित था। इनका समय शालिवाहन की पन्द्रहवीं शताब्दी में विजय नगर के राजा कृष्णदेव का शासन काल निश्चित किया जाता है।


कहा जाता है कि बारह वर्ष की अवस्था में ही वेद समाप्त करके इन्होंने शास्त्र का अभ्यास आरम्भ कर दिया था। ये वेदशास्त्र प्रारंगत, सदाचारी, धर्मात्मा तथा विशाल हृदय के मनुष्य थे। यही कारण था कि ये शैव तथा वैष्णव दोनों ही में आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। ये बडे बडे पण्डितों से मिले थे। अनेक सभाओं में शास्त्रार्थ कर अच्छे अच्छे पण्डितों पर अपना सिक्का जमा दिया था। इनकी विद्वत्ता तथा सदाचार देखकर चन्द्रगिरि के राजा को इनके प्रति विशेष श्रद्धा तथा भक्ति उत्पन्न हुई। उसने इन्हें बहुत सी भूमि पारितोषिक रूप से दे डाली जिससे इनके कुल तथा विधार्थियों का भली भाँति निर्वाह होता था। इनके लिखे हुए अनेक ग्रन्थ हैं। शिवस्कन्द चन्द्रिका, शिव मणि दीपिका शिवकर्णामृत, पश्र्वरात्रागम मतखण्डन, रामायण सारस्वत, शब्दप्रकाश तथा दो कोष इनके लिये हुए मुख्य ग्रन्थ हैं। इनमें से प्रथम के तीन ग्रन्थ इन्होंने अनेक यझ करने के बाद लिखे थे। 'आत्मार्पण' ग्रन्थ के विषय में तो इनका कहना था कि बहुत समय तक धतूरे के बीज खा चुकने पर वह ग्रन्थ लिखना आरम्भ किया था। उनका विश्वास तथा धारणा थी कि धार्मिक ग्रन्थ लिखने के पहले आत्मशुद्धि की विशेष आवश्यकता होती है, और धतूरे में यह शक्ति वर्तमान है। इनका यह ग्रन्थ ऐसा अपूर्व समभ्का जाता है कि आज भी दक्षिण भारत में इसका बडा मान है।


ये त्रिचनापली, तंजोर तथा मदुरा आदि स्थानों के राजाओं से मिले थे। उन्होंने इनकी विद्वत्ता तथा साधुता पर मुग्ध होकर अनेक पारितोषिक दिये। इससे प्रोत्साहित होकर न्याय, वेदान्त आदि विषयों पर ४ ग्रन्थ इन्होंने लिखे थे। इनमें से आज भी कुबलयानन्द व चित्र मीमाँ सा नामक ग्रन्थ पाये जाते हैं। आफ्रेक्ट आदि आधुनिक पण्डितों का कथन हैं कि 'प्रबोध चन्द्रोदय' नामक ग्रंथ इनका लिखा हुआ नहीं है। नीलकण्ठ विजय नामक चम्पुकाव्य भी इनके पौत्र नीलकण्ठ ने लिखा है। (डा० हूल्टजेस रिपोर्ट ऑन संस्कृत मैन्युस्कृप्ट न० २ पृ० ५)। बृत्तिवात्तिक, रत्न परीक्षा तथा सिद्धान्त लेश वेदान्त विषय का ग्रंथ इनके प्रसिद्ध है। मध्वमुख कपोल चपेटि का, रामानुजमतविध्वंस, दशकुमार चरित्र संक्षेप, इनके अनेक प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।


ये अत्यन्त निष्ठावान तथा स्वधर्म तत्पर थे। इन्होंने कावेरी के तट पर अनेक यझ किये। जो कोई भी इनसे मिलता उसे शिवस्तुति जक्रर सुनाते। निम्नलिखित श्लोक ये बहुधा सुनाया करते थे:- मुगरौ च पुगरौ च न भेद पारमार्थिका। तथापि माम को भक्ति चन्द्रचूडे प्रधावति॥ अर्थ- वास्तव में शिव और विष्णु में कोई भी