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भविष्यमें खुदाई करने पर अनेक लाभकारी वस्तु प्राप्त हो सकेगीं। अफजलखाँ-इसका पूरा नाम अब्दुल्ला भटारी अफजलखाँ था। कुछ इतिहासकारोंका मत है कि वह आदिलशाहका दासीपुत्र होगा। कदाचित यह अनुमान बाँई नगरप्रें मिलने वाले फरमानके ही आधार पर होगा। किन्तु किंकेड तथा पारसनीसके इतिहासमें कहा गया है कि वह आदिलशाहके सालेका पुत्र था। ऐसा अनु-मान,किया जाता है कि इसका पिता कदाचित शाही बाबर्ची खानेका दारोगा था। इसी कारण से इसके नामके आगे यह उपाधि लगा दी गई होगी। यह अत्यन्त हष्टपुष्ट और बलिष्ट था। इसका भाग्य मुहम्मद आदिलशाह के समयमें चमक उठा। उसके अन्तिम समयमें ही प्रथम कोंटिके सरदारोँमें इसकी गणना की जाने लगी थी। १६४४ ई ं में रणदूल्हाखाँ की मृत्यु हो गई। अब तक रणदूल्हा बांईका सूबेदारी था। उसकी मृत्युके पश्चात बांईकी सूबेदारी इसके हाथ आई,और उसकी मृत्यु पर्यन्त यह उसीके हाथमें रही। अपने समकालीन मुसलमानोंकी भाँति इसका भी व्यवहार हिन्दुओं तथा उनके देवमन्दिरों के प्रति अत्यन्त कठोरता तथा बर्बरता का था। अफजलखाँ की आज्ञानुसार निम्बके हिन्दूमठोंसे बड़ी कठोरताके साथ कर वसूल किया जाता था। उनके ऊपर और भी अनेक अत्याचार किये जाते थे। उस समयके कुछ पत्र मिलते हैं। उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि शिवाजी तथा अफजलखाँ दोनों ही तत्कालीन देशमुखपाँड़ेको अपनी अपनी ओर मिलानेका प्रयत्न कर रहे थे। बीजापुर वालोंने कर्नाटकका कनकगिरि नामक किला शाहजी को दे दिया था। अफजलखाँने मुस्तफाखाँको बहुत बहकाया तथा शाहजीके विरुध्द कहा सुना। इसका फल यह हुआ कि मुस्तफखाँं ने वह किला फिरसे ले लिया। अफजलखाँने प्रत्यक्ष रुपसे भी मुस्तफाखाँ की इस कार्यमें सहायता दी थी। १६५३ ई० में आदिलशाहकी कैदसे शाहजीको छुटकारा मिला। इसने छुटकारा पानेपर अपने ज्येष्ट पुत्र सम्माजीको मुस्तफाखाँसे कनकगिरी वापस लेनेको भेजा। मुस्तफाखाँने बड़ी चालाकी और विश्वासघात करके उसका बधकर डाला था। इस कारणसे भी वीर शिरोमणि शिवाजी तथा अफजलखाँमें वैमनस्यकी गाँठ पड़ चुकी थी इसके अतिरिक्त औरङ्गजेब भी इन दोनोंमें शत्रुताका कारण था। अफजलखाँ की गणना उस समयके सर्वश्रेष्ठ वीर तथा योद्धाश्रोंमें की जाती थी। सैनिक-कार्योँमें उसकी अच्छी ख्याति थी। वह बहलोलखाँ तथा रणदूल्हाखाँ इत्यादि प्रसिद्ध वीर सरदारोंकी कोटिमें गिना जाने लगा था। १६५७ ई० में जब दक्षिणमें औरङ्गजेब बीजापुर पर चढ़ाई की थी, उस समय उससे युद्ध करनेके लिये जिन दो प्रसिद्ध सरदारोंको चुना गया था उनमेंसे एक यह भी था। इस युध्दमें इसकी वीरता तथा बुध्दिका सिक्का सब पर जम गया था। इसने बड़े कौशलसे औरङ्गजेबका सामना किया था। अभाग्यसे उसी समय औरङ्गजेबको अपने पिताकी बीमारीका समाचार प्राप्त हुआ। अतः बिना युद्धका कुछ निर्णय हुए ही वह उत्तरकी ओर लौट गया था। वहाँ जाकर तो वह समयके फेरसे देहलीका सम्राट बन बैठा था।

   इसी समय शिवाजी भी धीरे धीरे देश पर देश जीतता हुआ अपनी शक्ति बढ़ा रहा था। बांई प्रान्तमें शिवाजी का कार्य बड़े अच्छे रुपमें चल रहा था। ईर्षा तथा द्वेषके वश यह समा-चार अफजलखाँ ने मुगल दरबारमें पहुंचाया। शिवाजी के पराक्रमका समाचार देहली यों भी पहुँच चुका था। अतः इस प्रश्न पर विचार करनेके लिये देहली दरबारमें सबलोग एकत्रित किये गये। बहुत वादा-विवाद होता रहा। उस समय अफजलखाँ भी राजदरबार में उपस्थित था। उसको अपने बल तथा शक्ति पर बड़ा घमण्ड था। उसने सम्राटसे प्रार्थना की कि शिवाजी को परास्त करनेमें वह पूर्ण समर्थ है। यदि सम्राटकी आज्ञा हो तो उसे वह जीवित ही पकड़ सकता है, अथवा युद्धमें उसे परास्त करके मार सकता है। सम्राटकी आज्ञा पाकर वह शिवाजी को परास्त करनेकी इच्छासे बीजापुर की ओर चला। ग्रान्डडफके मतानुसार वह ५००० सवार, १२००० पैदल सैनिक तथा अनेक तोपों इत्यादिसे सुसज्जित होकर १६५६ ई० के सितम्बर मासमें शिवाजी का सामना करने बीजापुरसे चल पड़ा। किन्तु आरम्भ ही से अफजलखाँको यह निश्चय नहीं था कि वह खुले मैदानमें युद्ध करके शिवाजी को परास्त कर सकेगा। बीजापुर वालोंका अनुमान था कि शिवाजीके पास बहुत अधिक सेना है। १६५६ ई० के अक्तूबर मासमें राजापुर की अंग्रेज़ी कोठीके रक पत्रसे यह भी पता लगता है कि अफजलखाँ