पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/४४

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अगरू ज्ञानकोप (अ) ३३ अगस मुख्य स्थान हैं। (इं० ग०) । उल्लेख किया है। प्रबल लिखता है कि बैंकाकसे अगरू ( अगर, ऊद )-इसे अंग्रेजी में बम्बई में उत्तम अगरू आता है। इसने तथा गागली "ईगलउड" और 'कालम्वक' तथा देशी भाषाओं और मवर्दीने इसके दो भेद बताये हैं। श्राइनेमें अगर' 'सासी' 'श्राक्यायू' 'कायूगारू' इत्यादि अकवरीमें इसकी बहुतसी किस्में बताई गई हैं। जिस कहते हैं। देशी नाम संस्कृतके 'अगरू' नामसे ही प्रकार प्राचीन आर्य बर्चके वृक्षकी छालसे कागज निकलते हैं । ऐसा भी अनुमान है कि 'अग्लोउड' का काम लेते थे उसी प्रकार श्रासाम निवासी वा 'इगल उड' नाम पाली भाषाके लाघू श्रथवा अगरू वृक्षके छिलके लिखनेके काम में लाते थे। लोहा शब्द से सम्बन्ध रखता होगा। इसकी छालसे एक प्रकारका धागा भी तय्यार प्राप्तिस्थान-भूटान, हिमालय, आसाम, खसिया होता है किन्तु वह मजबूत नहीं होता। स्त्रियाँ के पहाड़ी टीलों तथा पूर्वीय बंगाल या मर्त्तवान | सिर धोनेके पश्चात् बालोंको सुगन्धित करनेके कीप हाड़ियोंमें यह वृक्ष पाया जाता है। पेड़ लिये इसका उपयोग करती हैं। इसका उल्लेख सब ऋतुओंमें हरे भरे रहते हैं। इसकी ऊँचाई विल्हणने अपने "विक्रमांकदेव चरित्र के प्रस्ता६० फीटसे १०० फीट तक होती है और घेरा ५ वना खण्डमें इस भाँति किया है-'कुर्यादनाद्रेषु से ८ फीट तक होता है। इस पेड़से 'अगरू' किमंगनानां केशेषु कृष्णा गरु धूपवासः" । प्राचीन पदार्थ निकलता है। वीस वर्षका हो जाने पर यह | समयमें इसकी वैद्यक उपयोगिता गांवोंमें बहुत वृक्ष अगरू एकत्रित करने योग्य हो जाता है। कुछ थी। आमाशयकी औषधियोंमें अगरूकी योजना लोगोंका मत है कि जब तक यह वृक्ष ५०-६० की जाती है। लोगोंका विचार है कि खाँसी वर्पका नहीं होता तब तक यह पूर्ण रूप से इस इत्यादि रोगोंमें उत्तेजक पदार्थ देनेके लिये यह कार्यके योग्य नहीं होता। इस वृक्षकी सादी बहुतही उपयोगी है। इसकी छाल कडुई होती लकड़ी बहुत कीमती नहीं होती क्योंकि वह रंग | है और मन्दाग्निमें उपयोगी होती है। ( वट) में फीकी, वजनमें हलकी तथा गन्धहीन होती है। अगस-( अगासा) कनाड़ी धोबियोंकी . खास समय परही इस वृक्षके कुछ भागोंमें अगरू' | यह एक जाति है और विशेषतः मैसूर राज्यमें यह नामक पदार्थ पूर्ण रूपसे फलता है। उस समय मिलती है। मद्रासके दक्षिण कनाड़ी जिलेमें तथा लकडीका मुल्य भी बढ़ जाता है। 'अगरू' का बम्बईके दक्षिणीभागमें भी इनकी वस्ती है । मूल्य उसमेसे पाई जाने वाली राल परही निर्भर १६११ की जनसंख्यासे सम्पूर्ण भारतमें ये१९६०४७ होता है। पूर्ण विकसित वृक्षम ६ से = पौंड तक थे। उनमेसे ६७७७२ मैसूर राज्यमें और शेष 'अगरू' पाया जाता है। बहुत उत्तम होने पर ही मद्रास कुर्ग इत्यादि प्रान्तोंमें है। कदाचित् यह वृक्षका मूल्य ३००) रु० तक होता है । पेड़का वह जाति द्रविडोकी वंशज है। इनकी गणना शूद्रोमें भाग जिसमें अगरू उत्पन्न होता है बहुत ही टेढ़ा की जाती है। अतः इनके धार्मिक संस्कारोंमें मेढ़ा होता है। इस वृक्षकी वह लकड़ी जिसमें बहुधा ब्राह्मण पुरोहित नहीं जाते। 'अगरू' नहीं होता १) से ३) सेर तकके भाव स ३) सर तकक भाव । इनमेंसे ३०१४१ तो अन्य धन्धे करते हैं और विकती है। 'अगरू' से युक्त लकड़ी का रंग कुछ १३४४म अपने खानदानी पेशेही को कर रहे है । कुछ काला होता है। वह १६) से २०) सेर बिकती | इसके अतिरिक्त ये खेती भी करते हैं। भाषाओं है। श्राइने अकवरीमें इस वृक्षसे 'चवा' नामक | की भिन्नतासे इनके दो भाग हो गये है:-(१) सुगन्धित पदार्थ निकालने की विधि वर्णन की| कनाडी तथा (२) तैलंगी। हालहीमे ये महाराष्ट्र गई है। में पाये हैं। इससे इनका अभी तक हिन्दोस्तानी प्राचीनकालसे ही प्रायः सभी सभ्य देशोमें धोवियोसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । तैलंगी तथा सुगन्धिके लिये यह व्यवहारमें लाया जाता है कनाड़ी जातियोंमें भी रोटी बेटीका व्यवहार इसका वैद्यक दृष्टि से भी बहुत कुछ उपयोग है। प्रचलित नहीं है। तैलंगी अगसौमैं और भी उपधूपबत्ती बनानेके काममें भी यह पाता है। सिल- विभाग हैं। इनमेंसे एकसे अधिक ब्याह करनेकी हाटमें इसका इत्र भी निकाला जाता है। गुलाबके अनुमति है। इसके अतिरिक्त इस जातिमे बालसमान इसका इत्र उत्तम तथा कीमती होता है। विवाह और प्रौढ़ विवाह भी होता है। हरेक स्त्री माकोपोलो गासिया डीअोटा, बारथेमा, बारबोसा | को श्राजीवन अविवाहिता रहनेका अधिकार है। लिन्स्कोटेन, हर्बर्ट इत्यादि पाश्चात्य यात्रियोंने | वर अथवा उसके पक्षवालोको वधुके लिये मूल्य अगरू ( Lagle or Polumbac wood ) का देना पड़ता है। भिन्न भिन्न श्रेणीमें मूल्य घटता