पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/४८

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आगार्या ज्ञानकोप (अ) ३७ अग्नि दण्ड देना पड़ता है। इन लोगोंमें ऐसा नियम है जनसंख्या ३०२७ है। ये हिन्दू हैं। मुख्यतः ये कि विवाहके एक मास तक सहवास नहीं होता। रोहतक, गुड़गाँवा देहली और मुलतान जिले में शादीका खर्च वरको १५) और बधुको ४०) लगता | पाये जाते हैं। नमक बनाना ही इनका मुख्य है। वरको बहुधा अपने भावी श्वसुरके यहाँ रोजगार है। गुडगाँव जिलेमें रहनेवाले अगीर नौकरी करनी पड़ती है। नौकरीका समय तीन अपने को बिठूरके राजपूतोंके वंशज मानते हैं। साल तक हो सकता है। लग्नकाल निश्चित समाजमें इनका स्थान मामूली है। लोहार से होते ही वर नौकरी छोड़कर चला आता है। कन्या उच्च तथा जाटोंसे निम्न श्रेणी में इनकी गिनती का पिता वरपक्षको भोजके लिये बुलाता है। यदि होती है । वर उस भोजमें न आवे तो सम्बन्ध छूटा अग्नि-देवता) मानव सभ्यताके इतिहास समझना चाहिये। इन लोगों में विधवा-विवाह में अग्निका आविष्कार सबसे प्राचीन और महत्व प्रचलित है। जेठसे विवाह विधवाओं लिये पूर्ण है। विद्वानों का मत है कि दूसरे हिमान्तर उत्तम समझा जाता है। व्यभिचार श्रादि दोषों युग ( Second Interglacial Epoch) अर्थात् के लिये तिलाककी भी अनुमति है। त्यक्त स्त्री आजसे ४००००० वर्ष पूर्व अग्निका अविष्कार हो फिर विवाह कर सकती है। किन्तु जो ऐसी स्त्रीसे चुका था। भिन्न-भिन्न मानव जातियोंमें अग्निके शादी करता है उसे उस स्त्रीके पूर्व पतिको १२) विषयमें अनेक दन्त-कथायें प्रचलित है। भिन्नदण्ड देना पड़ सकता है। गर्भावस्थामें स्त्रीको भिन्न साहित्यालोकनसे इनका पता लगता है। उसकी माँ उसे साड़ी पहना कर पक्वान्न खिलाती अग्निके सम्बन्धमै वेदोंमें भी बहुतकुछ वर्णन किया है। प्रसूति-कालमें पाँच दिन का सूतक मानते हैं। गया है। विस्तारभयसे सबका उल्लेख तो नहीं मृत जलाये जाते हैं। चेचक वा हैजसे मरनेवाले किया जा रहा है किन्तु संक्षेपमें नीचे दिया को गाड़ते हैं। मरे हुएके उत्तराधिकारीके सिर | जाता है। पर काला वस्त्र लपेटते हैं। ये श्राश्विन मासमें पितृ । पृथ्वीके देवताओंमें अग्नि प्रमुख है। होम तर्पण करते हैं। हवनमें इसका प्रत्यक्ष संबंध है। इसलिये इनका देवता-दुल्हा इनका देवता होता है। उसको माहात्म्य विशेष है। यज्ञ आदिमें अग्निका कितना मुर्गी और बकरी की बलि चढ़ाते हैं। नारियल महत्व है, इनका वर्णन वेद ग्रंथोंमें मिलता है। इन और रोटी भी चढ़ाते हैं। उनका ब्यापारिक देवता ग्रंथों में इन्द्रका सर्वोच्च स्थान है और द्वितीय अग्नि 'लोहासुर' है। औषधियों पर उनका विश्वास का ऋग्वेदके २०० सूक्तोंमें इनकी प्रार्थना की गयी नहीं है। रोगीके शरीरमें देवताका प्रवेश करा- है। इनकी उत्पत्तिके संबंध अनेक भिन्न-भिन्न दंतकर उसके रोगी होनेका कारण निर्णय कराते हैं। कथाएँ प्रचलित हैं। इनके वर्णनके परस्पर विरोध जिस अपराधके कारण रोग होता है उसका प्राय- मिलते हैं। वस्तुतः विरोध इनकी उत्पत्ति-स्थानके श्चित् निर्णय कराते हैं। प्रायश्चित् हो जानेपर | भेदके संबंध ही है। अरणियोंकी परस्पर रगड़ रोगसे छुटकारा पानेकी श्राशा करते हैं। जादू टोना से ही इनकी उत्पत्ति मानी गयी है। एक दंतसे रोग दूर करनेपर इनका विश्वास होता है। कथा यो है-अग्निरूपी बालक उत्पन्न होतेही अपने गोंड, कवार, और अहीरोको अपनी जातिमें मातापिताका भक्षण करता है। उसकी माता सम्मिलित कर लेते हैं। ये बन्दर, लोमड़ी, मगर', उसे दूध नहीं पिला सकती। छिपकली, गोमांस और जूठा नहीं खाते। सूअर और अग्नि शब्द इंडोयूरोपियन है। लैटिनमें मुर्गीका मांस तथा मद्यपानकी पूर्ण स्वतंत्रता है। अग्निको 'इग्निस' और स्लेवानिक भाषामै 'श्रोग्नि' ये गोड तथा बैंगाके हाथकी रसोई नहीं खाते। कहते हैं। भारतवासी प्राचीन कालसे 'अग्नि' ये लोग कपड़ा बहुत कम पहनते हैं। स्त्रियाँ को इसी नामसे पूजते आ रहे हैं। इंडो-ईरानी गौड़ों के समान ही कपड़ा पहनती हैं। शरीर पर कालमें यज्ञके योग्य देवताओंमें अग्निकी गणना गुदना गुदवाती हैं। श्रासाममें भी इनकी आबादी की जाने लगी। पुरोहितोंका एक स्वतंत्र वर्ग (दर्जा) है। ये लोग प्रथमतः छोटानागपुरमें खेतीका | तयार हो चुका था। यही वर्ग 'अथर्वन' कहलाता काम करते थे। किन्तु पिछली जनसंख्याके समय था। यह अग्नि परम सामर्थ्यवान दैवी शक्तिका श्राधेसे अधिक आसाम, सिलहट और शिवसागर केंद्र माना जाता था। धन-धान्य, पुत्र कलत्र, बुद्धि के चायके बगीचोमें काम करते हुए पाये गये थे। और यश देनेवाले समझे जानेके कारण अग्नि की अगीर-यह पञ्जाबकी एक जाति है। इनकी उपासना की जाने लगी। इंडोयूरोपियन कालमै इनकासको अपनी जार, उसे दूधन शब्द इंडीयूवानिक भाषा आग्नि