पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/५२

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आतर्ंग निरीक्षण

दशावतार वर्णन आ• १ से १३ तक।
पहिले अव्याय के प्रथम श्लोक में लक्ष्मी, सरखती, गौरी, गणेश, स्कंद, ईश्वर ब्रह्मा, चिह्न, इन्द्र और वासुदेवादिकों का मंगल-गान या उनकी स्तुति का वर्णन इसके अतिरिक्त प्राय: कहीं नहीं दिखायी देता। 
ऋषियों ने सूत से प्रशन किया कि सार में सार क्या है, वह कहो। तब सूतने अग्नि-वासिष्ठ स्ंवाद कहा। परा और अपरा इन दो विद्याओ के आधार पर इस पुराण की रचना की गयी है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद तथा उनके छ: अंगों की शिक्षा, कल्प, व्याक्रण, निरूत्त्क, ज्योतिष, छ्ंद, मीमांसा, धर्मशास्त्र, पुराण, न्याय, वैद्यक, गांधवे, धनुर्वेद, अर्थशास्त्र, अपरा है। ब्रहाप्राप्ति के जो ज्ञानविषयक वचन कहे गये है वह परा है। इस प्रकार इस पुराण का प्रारंभ हुआ है।
दूसरी बात यह है कि ब्रहादेव, सृषिट इत्यादी विषयों से पुराण का आरम्भ नहीं हुआ है बल्कि अवतारचरित्र इसका प्राम्भ हुआ है।
आ• २ में मत्स्यावतार चरित्र और अ• ३ में कूर्मावतार का वर्णन है। पद्मापुराण और मत्स्यपुराण् के विषय आये है और विषयों के प्रदिपादनमें और इनमें फर्क नहीं है; श्लोक रचना मात्र भिन्न है। मत्स्यपुराण में कूर्मावतार चरित्र का उल्लेख नहीं है। अवतार-चरित्रों का प्राय: पुराणो मे समावेश है। अ• ४ में वराह नृसिंह, वाप्रन और परशुराम के संछिप्त चरित्र दिए है। अ• ५ में श्रिरामवतार के श्रि वाल्मीकि रामायण के जन्म काण्ड का संछिप्त विचार किया गया है। अ• ६ में रामायण के अयिध्या कांड, अ• ७ सुन्दर कांड अ• १० में युधकांड, अ•११ उत्तरकांड "रामरावणयोंर्युध्ं राम रावणयोरिव" वाला सुप्रसिद्ध श्लोकार्ध यहां दिया है। यद्य्पि यह रामायण संछिप्त है तो भी कोइ सुप्रसिद्ध कथा छूटी नहीं है। इस रामायण के कुल श्लोकों की संख्या १८६ है। अ• १२ में क्रिष्णाअवतार (इसमें आये हुए गोम्ंत का निर्णय किस प्रकार किया जाय यह एक प्रशन है)। क्योंकि यदि गोमंत् को आधुनिक गोवा प्रांत मान लिया जाय तो जरास्ंघ्य की चढ़ाई से भयभित हो श्रि क्रिष्ण को मथुरा छोड़ कर इतनी दूर भागना संभव् नहीं है। अत: गोमंत एक पर्वत का नाम है और भागवत में उस पर्वत का दूसरा नाम दिया हुआ है। भारताख्यान अ•१३। १४। १५ में है। तीन अध्यायों मे केवल ७२ श्लोक है।
अ• १६ मे बुद्धावतार और कल्कि अवतार क वर्णन है।  बुद्धावतार की कथा सर्वत्र ही है। बुद्धावतार की पौराणिक एसी है कि पूर्व समय में देव दैत्यों के युद्ध में देवों का पराभव हुआ , तब देवों ने विष्णु भगवान की प्रार्थना को और विष्णु ने बुद्ध का आवतार धारण किया। उस समय सब दैत्य वैदिक कर्म करने वाले थे और उसका धर्म से भ्रष्ट कर उनका पराभव करने के हेतु विष्णु भगवान ने बुद्ध अवतार लिया । इस बुद्ध के मत का अनुकरण करने वाले बौध कहलाते है। इसके उपरान्त जैनमत उद्द्भव हुआ। ऐसा अनुमान किया जात है कि जैनमत का पुरस्कर्त्ता वीष्णु अवतार ही है।
आर्हत: सोभबत्पश्रादार्हतान्करोत्पगन।
सृष्टि की उत्त्पत्ति अ• १७ से २० - अ• १७ में जगत की उत्त्पत्ति का वर्णन है। इस में ब्रह्मा से हिरणयगर्भ-ब्रह्मा तक की उत्त्पत्ति दी हुइ है। इससे सब परिचित है। "अपरेव ससर्जादऑ" यह श्लोक अन्य पुराणो की तरह यहा भी है।
(१७-७) अव्यक्तब्रहा- प्रकृति पुरुष, महत्व, अह्ंकार एक प्रधान विषय है। अह्ंकार के तीन प्रकार है- वैकारिक, तेजस और तामस अहंकार। आकाश, वायु, तेज, पानी तथा पृथ्वि, ये तामस अह्ंकार कि संतति है। तेजस अह्ंकार से इनिद्र्व और बैकारिक अह्ंकार से इन्द्रियों के अधिष्ठात्र देवता तथा मन उत्त्पन्न हुए। "तत: स्वय्ंभुर्भग्वान" इस श्लोकार्ध्य से अध्याय समाप्त होने तक के सब श्लोक महाभारत से लिये गये होंगे क्योंकि टिकाकार का कथन है कि दोनों ग्रंथो के श्लोक रचनाओं में साम्य है। टिकाकार कहता है कि ये ही श्लोक हरिव्ंश अ• २ में है। १८वें अध्याय के "स्वाय्ंभु व मनु व्ंश वर्णन " में कुछ फरक है। पूर्व अध्यायों कि तरह यह हगिवंश में है। अ• १६ में कश्यप वर्णन और अ• २० में जगतसर्ग वर्णन है। अ• में निरूपित किये गये प्राकृतादि तीन सर्गो के आगे का वर्णन दिया हुआ है। प्राकृत सर्ग के बाद महत सर्ग(महत से अंध्कार तक), भूत सर्ग (आकाश से पृथ्वि तक), वैकारिक सर्ग (भूतों के सूक्श्मत्व से  बना हुआ इन्द्रिय वर्ग) , ये तीन सर्ग गिने जाते है। विकृत सर्ग में स्थावर , तिर्यक स्त्रोतस, अघ:म्त्रोतस, ऊधव्म्त्रोतस