पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/५४

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और औनुग्रह ऐसे ५ भाग कल्पित किए गए है। तिर्थक् स्त्रोतस ही तिर्यक् योनिमें जन्मे हुए प्राणिके विपयमें हैं। ऊर्ध्व रत्रोतससे तात्पर्य ढेवसर्ग, और अर्वाक स्त्रोतस माने मनुष्य सर्ग हैं। इस भांति विकृत ५ और तामस ३ मिलकर ८ सर्ग और नववाँ सात्विक कुमार सर्ग हैं। इसलिए ब्रह्मदेवसे उत्पन्न हुए जगतके मूल-भूत नौ सर्ग हुए। देवोपासना और मन्त्र था. २१-३८-श्र. २१ में विष्णिवादी देवताओंकी सामान्य पूजा दी हुई है। इसमें देवताऔंके मन्त्र वीजोंका विधान है। श्र. २२ में पूजाधिकारके लिए सामान्य स्नान-विधि है। अ. २३ मंज आदिसूर्त्यादि पूजा-विधि। अ. २४ में कुएड निर्माणादि, अग्निकार्यादि कथन तथा पोडश संस्कार। अ.२५ में चासुदेवादि मन्त्र लक्षण। अ. २६ में मुद्रा लक्षण। अ. २७ में शिष्योंकों दीक्षा देनेकी विधि। अ. २८ में आचार्यादि अभिपेक वर्णन। अ. २९ में मंत्र-साधन विधि।, सर्वतोभद्रादि लक्षण तथा विधान। अ.३०।३१ में अपामार्जन विधान। अ. ३२ में निर्वाण दीक्षासिध्यर्थ संस्कार-वर्णन। अ. ३३।३६ में पवित्रारोपण विधि, पूजा और होंम। (अधि-वासन और दूसरे देवताओंके सम्वंधमें पवित्रारोपण विधि उत्तर खंड अ. ८६ के पद्यपुराण और इसमें कुछ फरक हैं। यह पवित्रारोपण विधि आवणमें करनेको कहा है) अ. ३८ में देवालय निर्माणफल, निर्माणारंभ, देवालय निर्माण करनेके लिये जमीनकी परीक्षा। पाँच अथवा छः रात्रिमें करनेको कहा है। प्राणप्रतिष्ठा करने लायक ब्राह्मण कौन है, इसका ग्रंथोक्त विचार इस प्रकार है कि मध्यदेशक ब्राह्मण प्राण-प्रतिष्ठाके योग्य है। कच्छं कचोरी कोंकण, कलिंग, कांची और काश्मीर देशके ब्राह्मण प्रतिष्ठाके अयोग्य हैं। भूमिके टीलोंको तोड और भूमिको चौरस करके नापना चाहिये। उसके बाद अष्टदिशाओंकी तरफ सत्तु, उडद, हलदी इत्यादि द्रव्यको फेंकना चाहिये जिससे राक्षस पिशाच इत्यादि का नाश होता है। यह जमीन देवस्थापनाके योग्य होती है। इस भूमिको चौरस करने केलिये बैलोसे हल चलवाना आवश्यक है। इस विषयका बहुत कुछ मत्स्यपुराण के अ. २५२ मे उल्लेक किया गया है। उपासनामिश्र वास्तुशास्त्रा ३९-१०६- अध्याय ३९ से ४५ तक का विचार वास्तुशास्त्र विषयक विचार है। इसमेंका बहुत सा भाग कठिनतासे समझमें आता है। अ. ४६-४७ में शालिग्राम लक्षण और पूजन। अ. ४७ में केशवादि चौबीस नामोंकी मूर्तियों के स्तोत्र। अ. । अ.४९ में दशावतार प्रतिमा लक्षण। अ. ५० में चंडी आदि देवियोंके प्रतिमाओका लक्ष। अ. ५१ में सूर्यादिग्रह देवता प्रतिमा लक्षण। अ. ५२ में चौसठ योगिनी प्रतिमा लक्षण। अ. ५३ में लिंगादि लक्षण। अ. ५४ में लिंगके प्रमाणका व्यक्त्ताव्यक्त स्वरूप।अ.५५ में पिंडिका लक्षण। अ. ५६ में दशदिक्पाल योग वर्णन। अ. ५७ में कलशाघिवास विधि। अ. ५८ में स्नपन विधि। अ.स५६ में अधिवासन विधि। अ. ६० में वासुदेवादि देवताओं की सामान्य प्रतिष्ठा। अ. ६१ में अवभृत स्नान, व्दार प्रतिष्ठा। व्दजारोपण विधि। अ. ((रूदग्राहिं हैंवटा प्रतिष्टाकौ सामाम्बविधि । अव ६३ मैं विष्ट्रवादि देयता प्रतिष्ठा सत्मान्य विधि, पुरत्तक्र-लेखत्त-द्गथतैध । इसको किस प्रकार लिखना चाहिये इसका यत्न नहीं है वल्कि उपर्युक्त नामां- सिंदृ मंत्र सफेद अथवा सुनहली स्वन्दीसे नागरी भाषामें सिखना चाहिये स्तना ही उल्लेख है । स्थापना क्रर्य-ठस्थ ६५ में कूप. पापी, सदृश्या प्रतिष्टा विधि । आ ६५। में सभादि स्थापन विधि। अ० ६६ मैं जमीनकी परीक्षा फर वहाँ वास्तु भाग करना चाहिये । यह सभा चौक अथवा ग्राभकें आत्रहँभपै करना चाहिये । सूनी जगाती न होनी चाहिये । इस सभाएँ चार, तीन, दो अथवा एक शाहा यर कोने छोडने चाहिये । १८० ६६ में देयता सामान्य प्रतिज्ञा । अ० ६७ में वंगैणपैद्धार विधि है अ० ६८ उत्सव विधि । ३४० ६९ मैं मूर्तिर्योको नहलानेका विधि । अ० ७० में वृक्ष प्रतिष्ठा । वृदपैको अलंकृत करके सोनेकी सूई न्दूर्भाना चाहिये ओर तदुपरान्त पूजा करना चाहिये । अ० ७१ में गणेश चूम । 3४० ७२ मैं स्नान विधि । अथ ७३ ३३3३ यूटा कथन, सूर्य को राख लगाकर एलन करना चाहिये । अथ जा- ७५ में सियचूडा। तथा होंत्यंनिपि : जप करते साथ उसे थेष्टित खत का चीन फूल अक्षत. दृर्भ त्न्यादि से पृजन करना चाहिये । पाश की म्नम्भओम्ल। इन्तजाम रखना आवश्यक है । हाथमै व्रदृयेंपात्रलेक्रर अग्नि अद्दपैउराना चाहिए चौरजत्तर की और अंह कर कुण्ड पर प्रीक्षण करना चाहिये। ग्रह ओक्षहैंहुँ। अम्नभन्त्रसे करना चाहिए । ब्रर्मासे आयुझुण. खद्रसे जमीन खपैदनां, ब्रर्मासेचौस्त कर उसपर पानी छिड़फगा, वाणके अग्रभागसे व्रट्टीप्ला देला फीड़ना, त्रिसूत्री परिधान वर्मासे इस प्रकारकी पृजार्का तान्विक पूजा समझा जाता है 1