पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/६०

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साधारण के लिए नियम उस समय भी रहा होगा। परन्तु ठेकेपर नौका देना केवल राजाका ही काम था। शुक अनाज पर भी भाग कर होना चाहिये। शुकधान्य मे बाजरा आदि है। शिम्बी अनाज पर भाग कर लेना उपयुक्त है। राज्यको चलके अनाज देश और कालके अनुसार काम मे लाना चाहिये। बरि एक प्रकार का चावल ककुनी, सावा, देशभात,एक प्रकार का चावल,पशु और सोनेपर कर और भाग लेना चाहिये। सुगन्धित द्रव्य, औशधि,रस,मुल, फल,प्याज, पत्ता,शाका वास,चमडा, बास की बीया यह बिल्कुल गेहुके समान होती है, बास या बेतोके बर्तन, धातुके बर्तन मधु मास,और घी आदि पर कर भाग होना चाहिये। केवल ब्राह्मण कर मुक्त होते थे। ओत्रीय ब्राह्मण की जीविका उसके गुण पर निर्भर रहती है। उसी प्रकार गुणी व्यक्तियोके राजाश्रय अवश्य प्राप्त होना चाहिये। जो राजा धर्मपालन करता है उसकि आयु,द्रव्य,और राश्ट्र कि व्रुद्धि होती है। कारीगरोसे करके बदले वर्श मे एक मास राज्यकार्य कराना चाहिये। अध्याय २२४ मे अन्तपुरकी स्त्रियोके रक्षणविधानका वर्णन है। यदि स्त्रिरक्षण एक व्रुक्षरुप कल्पित क लिया जाए तो धर्म इस व्रुक्ष का मुल अर्थ इसीकी शास्त्राये और काम इसका फल होगा। इस त्रिवर्ग की प्राप्ति केवल स्त्रिरक्षण द्वारा प्राप्त है। इसी लिए अन्तपुर की स्त्रियोकि रक्षा करना यह राजाके अनेक कर्तव्यओमेसे एक मुख्य कर्तव्य है। स्त्रिया कामाधीन है। अत उनके लिए रत्न सङ्र्ह करना चाहिये। विशयभोग बहुत नियमित रुप से होना चाहिये। इसके बाद के अध्याय मे कौनसी स्त्री अपने उपर आसक्त नही है यह जानने के लक्षण और उसे वश करने के लिए थोडेसे उपाय और औशधि वर्णन की है। अ २२५ मे राजधर्म तथा राजापुत्र का शिक्षण। राजपुत्र को किसी एकही विशयक का जान न होना चाहिये। उसको धार्मिक,आर्थिक,कार्मिक,साङ्रामिक,और शिल्प इत्यादि की पुर्ण शिक्षा देनी चाहिये। चापलुसोकी सङतीसे उसकी रक्षा करते रहना चाहिये। तामसी,लोभी अथवा अभिमानी लोगोकी सङति न होनी चाहिये। राजपुत्र के चाल-चलन की पुरी पुरी खबर लगाने के लिए उसके शरिर-रक्षण के निमित्त बहुतसे सेवक रखने चाहिये। राजपुत्र को कश्ठ न देना चाहिये। राजपुत्रके उपद्रव करने की शन्खा होते ही राजा को उसे युक्ति से बन्धन करना चाहिये। नम्र राज-पुत्रको सब अधिकार के पद देने चाहिये। द्रुत,शिकार,मध्य,इत्यादिसे उसे आलिप्त रखना चाहिये। दिनमे निद्रा,व्रुथा अभिमाना वेश्वदबीसे बोलना, निन्दा दण्ड, कठोरता,द्रव्यका निरर्थक खर्च,काम,क्रोध,मद,मान,लोभ,इत्यदि दुर्गुणोसे उसे बचाते रहने की व्यवस्था राजाको रखनी चाहिये। आकार उछेद और दुर्गादिको की टुट फुट होना अर्थनाथ का घोतक है। देश कालादिकके विचारके बिना दान अथवा निरर्थक खर्च करना अर्थदूशाण है। राजाको प्रथम तो क्रोधादि जीतकर नौकरोपर पुर्ण अधिकार प्राप्त करना चाहिये। तदनन्तर देशोको जीतने का प्रयत्न करना चाहिये। फिर बाह्य शत्त्रुओ को जीतना चाहिये। बह्य शत्रु तीन है। निम्नलिखित श्लोकोका अर्थ ठीक ठीक जात नहि होता। 'गुरुवस्ते यथा पुर्व कुल्यानन्तर क्रुत्रिम:। पित्रुपितामह मित्र सामनश्र तथा रिपो:। क्रुत्मन्च महा भाग मित्र्न त्रिविध मुच्छ्ते"। स्वामी,अम्बल्य,जनपद,दुर्ग दण्ड,कोश और मित्र ये सात अङ मिलाकर राज्य कहलता है। उपर्युक्त सात अङोमेसे किसी एक भी अङ से विद्रोह करनेवालेको म्रुत्यु दण्ड देना चाहिये। समयानुसार राजाको कठोर और कोमल होना चाहिये। राजाको नौकरोके सम्मुख हसना उचित नहि है। हसने से राजाका सेवकोद्वारा अपमान होने की आशन्का है। लोकसङ्रहार्थ राजा को कार्यतत्पर होना चाहिये। राजाको स्मितपुर्व बोलना चाहिये। दीर्घ सुत्रि राजा ठीक नहि होता। परन्तु क्रोध,दर्प,मान,द्रोह,पाप तथा अप्रियके प्रति राजाको दीर्घ सूत्रि होना चाहिये (अर्थात इनको शिघ्र हि अपने पास फटकने दे)। राजाकी चालचलनके नियम -अपना विचार किसी से प्रकट न करना चाहिये। मन्त्र विचार (सलाह) अकेले मे करना चाहिये। सर्वत्र विश्वास न रखना चाहिये। राजाको उजडू न होना चाहिये। राजाको विनयी होना चाहिये। राजाके कल्याण के उपाय इस प्रकार कहे गए है: युद्धसे पीठ न दिखाना, प्रजा का पालन करना,ब्राह्मनोको दान देना,क्रुपन,अनाथ तथा विधवाओकी उपजीविकाका प्रबन्ध। वर्णाश्रम व्यवस्था,तापसी लोगोका पुजन,तपस्वियोके वचनोपर भक्ति तथा विश्वास करना राजाका मुख्य कर्तव्य है। बगले