पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/६४

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देखना चाहिये। तपखियो द्वरा अथवा ज्योतिविशयो द्वारा शत्रुका क्षय होगा ऐसी बाते शत्रु मै फैलाना चाहिये। शत्रुकी म्रुत्य के लिये अनेक उपाय करने चाहिये। एद्रजालिक प्रयोग दिखाने चाहिये। शत्रु सेना पर रक्त व्रुश्ति करनी चाहिये। इश्वर कि क्रुपा अपने पर विशेश हुइ है ऐस भासित करना चाहिये। राजप्रसाद अथवा उचे शिखरो पर शत्रुओके सिर लटकने चाहिये। छ: गुर्व इस प्रकार है- सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वेधीभाव और सन्शय। राजाकी दिनचार्या-श्र०२३५। दो मुहुर्त सोश रह्ने पर राजाको सो कर उठाना चाहिये। पहले गुप्तचर को बुलाना चाहिये। मल-मुत्रका उत्सर्ग, स्नान सन्ध्या, देवपूजन कर सुवया, धेनु इत्यादि दन्धर्म करना चाहिये। तत्पावात अनुलेपन करना चाहिये शीशेमे मुख देखना चाहिये, गुरुसे भेट्कर उसका आशिर्वाद लेना चाहिये। अलान्कार वस्त्रावादि परिधान कर सभामे प्रवेश करना चाहिये। सम्प्रुण काम का व्योर सुनकर उसका निरणय करना चाहिये तब सभा सम्पात करनी चाहिये। ब्यायाम करना चाहिये। शत्रुओ को अवलोकन करना चाहिये। रणदीक्षा-श्र-०२३६। रणदीक्षा मिलने पर राजा को सेना सहित निकलकर एक कोसपर ठहर कर ब्राह्णदिको की पूजा करनी चाहिये। परदेश जाने पर उस देशके आचारनुसार बर्ताव करना चाहिये। वाहा के लोगो क अपमान नही करना चाहिये। सेना कि रचहना सूची मुखे सामने होनी चाहिये। सेना थोडी रेह्ने पर भी शत्रु को अधिक क भास होना चाहिये। सेना रचना करते समये आगे कम पीछे अधिक सेना रखनी चाहिये। व्युह रचना प्राणियोके अग और द्रव्यो के अनुसार करनी चाहिये। ब्युहके सामन्या १० नाम है जैसे- गरड, मकर, श्यन, अद्धर्छन्द्र, वज्र। शकट, मन्ड्ल, सर्वतो और सुची। सब व्युहोमे सेना पन्छ जगह विभात होती है। पाचों भागोमैं चुने हुए योद्धा एक दो अवश्य रखने चाहिये और शोश उनके संरक्षणार्थ रखना चाहिये। राजा को स्वयं युद्ध नही करना चाहिये। सोनेसे एक कोस दूर रेह्ना चाहिये "मूल्च्छेदे विनाश: स्यात्र युद्धच्चे स्वाय्ंप:। सैन्यास्यपश्राति कोश्मात्रे महिपति॥" योद्धओ को अथवा सन देते रेह्ना बडा आवश्यक है। यदि सेना का मुख्य भाग कमजोर हो जाये तो राजा को वहाँँ नही ठह्र्र्ना चाहिये। सेना अधिक हो या थोडी, व्युह भेदकी योजना समभ कर ही करनी चाहिये। व्यहु सबको मिलकर एक साथ ही तोड्ना चाहिये। शत्रुका प्रथम शिथिल करे फिर मौका पाकर उसे तोड्ना चाहिये। व्युह तोड्नेवाले का रक्षण बडी सावधानीसे करना चाहिये। हाथीक पादरक्षणार्थ चार योद्धा होने चाहिये, रथ के रक्षणार्थ चार ढाल तलवार सहित घुड्सवार होना चाहिये। धनुधररियों के साथ उतने ही ढाल वाले तथा उनके पीछे अश्व होने चाहिये। अश्र्व्के पीछे रथ, हथी, पैदल, अनुक्रमसे एकके पीछे एक होने चाहिये। नाकों पर सर्वादा शुर होने चाहिये। शुर लोगो को सिर्फ कन्धेही दिखलयी देनी चाहिये। आगे वाले अर्ध-श्लोकका अर्थ स्पश्ट है। शुरो के लक्षय: लम्बा शरीर, शुकके समना नाक, प्रेम द्रुश्टि (अजिम्हेक्षण) सन्ह्तभू, संतापी कलहप्रिय, नित्य, सन्तुश्ट, आदि शुरो के लक्षण है। म्रुतोकोके शव युद्धभूमिसे दूर करना पैदलो का काम है।उसी प्रकार रसद पानि, आयुध इत्यादि योद्धाओंकें पास पहुचाना उनका काम है। हाथी का काम ट्क्कर लड्के का है। शत्रुसे स्वसेना का रक्षण करना, एकत्रित सेना को तितर बितर करना, बहादुरोंका का कर्तव्य है। शत्रु को भगानेकेलिये बाध्या कारना धनुधर्याका काम है। संघटित सेना को छित्र-मित्र करना, तथा सेना को एकत्रित करना,रथियों का काम है। तटादिकों को भेद करना हाथियों का कर्तव्य है। विश्म (पहडि अथवा उचि निचि जमीन को विश्म केह्ते है) भूमि पैदलोंके लिये उत्त्म है परन्तु रथो के लिये उप्योगि नही है। हाथि के लिये दलबदलकी भूमि उत्तम है। ये सब रणभूमि के लक्षण देख कर देखकर राजा ने सेना की व्यवस्थ करनी चाहिये। योद्धओको सर्वदा उनका नाम तथा कुलकी प्रशंसा करके उत्तेजित करना चाहिये। धर्मनिस्थ राजा की सर्वदा जय होती है। उदाहरण- हाथी से हाथी, पैदल से पैदल, रथ से रथ इत्यादि। प्रेक्शक नि:शरत्र अथवा पतित लोगोके रणभूमि प्रवेश नही करनी चाहिये। शत्रु शन्त निद्राभिव्यात्त, नदी अथवा बनमें हो तो कपट युद्ध करना चाहिये। "शत्रु मारे गये, उनका नाश हुआ"