पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/६५

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अग्निपुराण ज्ञानकोष (अ) ५४ अग्निपुराण इत्यादि उच्च खरसे चिल्लाते रहना चाहिये ( बाह मन्त्र ५ प्रकारके माने गये है:-श्रज्ञान विषयों प्रगृह्यविक्रोशेत् भग्ना भग्ना)। सहायतार्थ नई सेना का ज्ञान, विदित वस्तुओंका निश्चय, दुविधा का श्राना. शत्रु सेनापतिका युद्धमै मारे जाना वाली बातोंकी शंकानिवृत्ति, श्रन्त तक परिणाम इत्यादि उत्साहित करनेवाले समाचार अपनी सेनामे को देखना, देशका विचार करते हुए सम्पत्तिका फैलाना चाहिये। शत्रुको पकड़ने पर यदि प्रधान विचार। मद, प्रमाद, काम, सुप्त तथा प्रलाप की ओरसे भेट (रत्नादि) आवे तो स्वीकार मन्त्रणाके नाश करनेवाले हैं। प्रगल्भ, स्मरण करना चाहिये । शत्रुकी भी स्त्रियोका रक्षण शक्तिवाला, वाग्मी, शस्त्र और शास्त्रमें तप्पर, करना चाहिये। शत्रुकोपकडकरछोड देना चाहिये। कार्यमे पूर्ण अभ्यास ( अभ्यस्तकर्मा) किया उससे युद्ध न करना चाहिये। पुत्रके समान हुआ ही राजाकी सेवायोग्य है । दूतमें निम्नउसका पालन करना चाहिये। देशाचार कभी लिखित गुण अवश्य होने चाहिये-बिना समझे तोड़ना नहीं चाहिये। विजय प्राप्त कर ध्र व बूझे शत्रुके सामने खड़े न होना चाहिये, सभामें नक्षत्र पर घर लौटकर ब्राह्मणों की पूजा करना न जाना चाहिये, शत्रुका बल देखकर ही उससे चाहिये । उनसे श्राशीर्वाद लेना चाहिये। योद्धाओं विरोध करना चाहिये। गजाको प्रत्यक कार्यके के कुटुम्बके पालनपोषणकी योग्य व्यवस्था रखनी लिए उचित कालका ध्यान रखना चाहिये। गगाचाहिये । युद्ध में पाया हुआ द्रव्य नौकर, सेवक परागकी दृष्टिसे अथवा मुखाकृति को देखकर ही और योद्धाओंमें बाँट देना चाहिये। हृदयकी इच्छा समझ लेना चाहिये। गुप्तचरको अ० २३७ में श्रीस्तोत्र। श्र०२३- में रामने व्यापारी किसान, भिक्षुक, श्रथवा बहुरूपिया का जिस नीतिको लक्ष्मणसे कहा था उस नीतिका रूप समयानुसार धारण करना चाहिये। मन्त्र. सामान्य वर्णन है ( नीति और धर्म)। अ २३४ मन्त्रफल-सिद्धि, कामकाजका निरीक्षण, श्राय-व्यय में राजधर्म । इसमें गजाके और साधुओंके (जमा-खर्च), दण्डनीनि, शत्रुका प्रतिशोध, व्यसन गुणका वर्णन है। (विनीतत्व धर्मकता साधोश्च का प्रतिकार, गजा तथा राज्यकी सुव्यवस्थानृपतेर्गुणः ) इसके बाद परोहित श्रामात्य इत्यादि ये आमात्य (प्रधान) के धर्म है। के वर्णन संक्षेपमें दिये हैं। अः २४० में राजा यदि श्रामात्य व्यसनी हो तो कार्य नियमित के षाड़गुण्य। राजाके मुख्य मन्त्रणामण्डलमें रूपसे कदापि नहीं चल सकता। अतः इसका अन्य १२ राजा होने चाहियः-शत्रु, मित्र, शत्रुका ध्यान रखना चाहिये। 'हिरण्यधान्यवराणि मित्र, मित्रका मित्र, शत्रुके मित्रका मित्र पाणिग्राह वाहनं प्रजया भवेत्। तथान्ये द्रव्य निचया हन्ति आक्रंद, श्रासार. अवनय, इत्यादि । संधि सोलह सव्यसना प्रजा ॥' इस श्लोकका अर्थ स्पष्ट नहीं प्रकारकी है:-कपाल, उपहार, संतान, संगत उप- होता, किन्तु भाव इसका निम्मलिखित विदित न्यास, प्रतीकार, संयोग, पुरुषान्तर, अदृष्टनर, होता है-सोना. अनाज. वस्त्र प्रजाके पास पूर्ण आदिष्ट, श्रात्मा, उपग्रह, परिक्रमा, छिन्न, परदूषण रूपसे होना चाहिये और इसीका प्रजाको ध्यान तथा स्कंधोपनेय आदि । रखना चाहिये। दृसरी बस्तुओंके फरमें पड़ी हुई इन सोलह प्रकारोंमें से चार ही मुख्य हैं- प्रजा ब्यसन को प्राप्त होती है। यामात्यको उचित परस्परोपकार, मैत्र, सम्बंध और उपहार । निम्न है कि पीड़ित प्रजाकी रक्षा, कोप तथा दगडकी बीस प्रकारके मनुष्य सन्धिके अयोग्य समझे गये सुचारु व्यवस्था करता रहें । उपरुद्ध, परिक्षिप्त, है-वाल, वृद्ध, दीर्घरोगी, वन्धुवहिप्कृत, भीरु, श्रमानित, विमानित, भूत, व्याधित श्रान्त, दूरडरपोक, लुब्ध, लुब्धजन, विरक्त, अत्यन्त विषयी, यात, नवागत परिक्षीण, प्रति हत प्रहताग्रहर, अनेकचित्त-मन्त्र, देव-ब्राह्मण-निन्दक, दैवोपहतक, प्राश्यनिर्वद, भृमिष्ट, अनृतप्राप्त, कलभगर्भ, दैवनिन्दक. दुर्भिक्षव्यसनोपेत्त, बल-व्यसन- निक्षिप्त, अन्तःशल्य, विछिन्न, विविधासार, शुन्य संकुल, स्वदेशस्थ, बहुरिपु. बहुकाल-मुक्त, सत्य | मूल, अस्वास्थ, संहत, भिन्नकृट, दुष्पाणिग्राह, धर्मविरोधी। एद दूसरेकी बुराईसे ही विग्रह ये सैन्यव्यसन कहे गये हैं। इन शब्दोंका अर्थ उत्पन्न होता है। शत्रु पाँच प्रकारके माने गये सावधानीसे करना चाहिये । यन्त्र, प्राकार, परिखा. हैः-सापत्त, वास्तुज, स्त्रीज, वाग्जात् और इत्यादिका टूटना, शस्त्रोंकी न्यूनता, निबल अपराद्ध। विग्रह सोलह प्रकार के हैं। सेना की भरती करना इत्यादि दुव्यसन है। अध्याय २४१ में सामादि। मन्त्रणा-शक्ति राजाका निवास और गज्यकोश सेनाके मध्य प्रभाव और उत्साह पर ही निर्भर मानी गई है। में सुरक्षित रखना चाहिये। सामके चार भेद