पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/६९

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मिलाकर नीचे की ओर दृष्टि स्थिर रखनी चाहिए। वैशाख स्थान-सीधे और तने घुटनों पर हाथ की अंगुलियों को रखना चाहिए। मंडल स्थान-हंस की पंक्तियों के समान करके उसमें एक बित्ते का अंतर रखना चाहिए। आलीढ-हलके आकार के समान घुटने और जाँघ रहना चाहिए। ५ अंगुल का अंतर होना चाहिए। विपर्यस्त-उपरोक्त लक्षणों के विपरीत क्रिया। जातस्थान- बाँए घुटने को टेढ़ा करके दाहिने को सीधे तना हुआ रखना। इसमें ५ व १२ अंगुल का अंतर होना चाहिए। दडायत-दाहिने घुटने को टेढ़ा करके बाँए को सीधे रखना। विकट स्थान भी इसी भाँति समझना चाहिए। केवल दो हाथ का अंतर होना चाहिए। सम्पुटस्थान-दोनों पैर ऊँचे करके घुटनों को पूरा पूरा फैलाना। स्वास्तिक स्थान-दड के समान सीधे पैरों को रखकर उनको फेरना। इस क्रिया में अंतर १६ अंगुल होना चाहिए। ये सब क्रियाएँ ज्यादातर धनुर्धारियों के लिए होती हैं। वन्दना करने के पश्चात धनुष ग्रहण करना चाहिए। धनुष का एक कोना ज़मीन पर टेक कर प्रत्यन्चा चढ़ानी चाहिए। 'फलादेश' भूमि पर स्थित करना चाहिए। धनुष को तौलना चाहिए। कलाइयाँ और हाथ घुमाकर प्रत्यन्चा पर बाण लगाने चाहिए। धनुष का विन्यास १२ अंगुल होना चाहिए। आगे के आधे श्लोक में कहा है कि प्रत्यन्चा की शक्ति के अनुसार ही वह खींचनी चाहिए। धनुष को नाभि पर टेक कर बाण नितंब पर रखना चाहिए। हाथ कान तक खींचना चाहिए। चुटकी सधी हुई होनी चाहिए। दक्षिण स्तन की ओर बाण होना चाहिए; बाण ऊपर नीचे, भीतर बाहर एक समान होना चाहिए। टेढ़ा, चंचल, मोटा, पतला होना दोष का लक्षण है। सारथी को त्रिकोण में बैठना चाहिए। कंधे झुके होने चाहिए। गर्दन निश्चल और मस्तक "मयूरांचित" होना चाहिए। (मयूरांचित का लक्षण सारंङ्गदेव ने संगीत रत्न में दिया है।) मस्तक, मुख, नाक, कंधे किंतु ठुड्डी और कंधों में तीन अंगुल का अंतर होना चाहिए यही उत्तम जाना गया है। मध्यम दो और निकृष्ट एक अंगुल कहा गया है। अंगूठा और उसके पास वाली अंगुली से बाण निकालना चाहिए। बाण को प्रत्यन्चा पर चढ़ा कर बाणकी लंबाई के प्रमाण में खींचना चाहिए। उपरोक्त सम्पूर्ण विधि को "आमुक्त" कहते हैं। दृिष्टि और चुटकी को साध कर ही लक्ष पर बाण चलाना चाहिए। बाँए हाथ से छोड़ने को 'उच्छेद' कहते हैं। केवल निशाने पर ही ध्यान रखना 'मध्यम' गिना जाता है। उत्तम तो वह है कि लक्ष के साथ ही साथ हाथ और बाण पर भी पूर्ण ध्यान रहे। इसी भाँति उत्तम धनुष ४, मध्यम ३ और निकृष्ट ३ हाथ का होता है। मुख्यतः तो उपरोक्त वर्णन केवल पैदलों ही के लिए है, किंतु यही सब नियम और व्यवस्था घुड़सवार, रथ और हाथी के लिए भी हो सकती है। अ० २५० में भी धनुर्वेद का ही वर्णन है। धनुर्विद्या सीखते समय पहले यज्ञ भूमि पर धनुष 'सुनिर्धौत' रखना चाहिए, मांस का हवन करना चाहिए। धनुष, गदा आदि आयुधों की पूजा करनी चाहिए। निपुण योद्धा को एकचित्त होकर बाण हाथ में लेना चाहिए। (तूण) तरकश पीठ में बाँधना चाहिए। वह बाँए अथवा दाहिने बगल में लटकाना चाहिए, बाण खुला रखना चाहिए। तदनंतर, तरकस में से बाण निकालना चाहिए। वह दाहिने हाथ में लेना चाहिए। दाहिने हाथ से बाण बीच से पकड़कर बाँए हाथ से कक्षा और धनुष पर चढ़ाना चाहिए। धनुष की प्रत्यन्चा चढ़ाने पर बाण पुंख की ओर से धनुष पर चढ़ाना चाहिए। सिंहकर्ण के समान पुंख को तानकर (सिंहकर्ण पुंख का विशेषण है कि क्रियार्थ माना जाए, यह शंका है।) बाण को बाँए हाथ के बीच की अंगुली से पकड़ना चाहिए। ध्यान लक्ष की ओर रख मुष्टि और दृष्टि समरखा में रखनी चाहिए और प्रत्यन्चा दाहिने कान की ओर खींच कर बाण छोड़ना चाहिए। दंड प्रहार के समान चंद्रक(१६ अंगुल का बाण) माथे में मारना चाहिए। इसका अभ्यास सावकाश करना चाहिए। इस चतुर्वेध अभ्यास पूर्ण होने पर क्रम से तीक्ष्ण, परावृत, गत, निम्न, उन्नत ऐसे लक्ष्यों का अभ्यास करना चाहिए। (इस अभ्यास क्रम का आज कल गोली चलाने के अभ्यास से बहुत कुछ साम्य है)। यह धनुर्वेद के अभ्यास की पहली सीढ़ी है। यह अभ्यास बढ़ते बढ़ते दो तीन वेध एक ही समय में हो सकते हैं। इसके बाद १३ से १७ श्लोक तक का अर्थ ठीक ज्ञात नहीं है।(अ० २५१) धनुर्विद्या के अभ्यासक को निम्नलिखित बातों पर भी ध्यान रखना चाहिए। अभ्यासक जितहस्त, जितभक्ति, जितदृष्टि, और लक्ष्य साधक होना चाहिए। इस प्रकार धनुर्विद्या का अभ्यास होने पर वाहन पर बैठकर इन बातों का अभ्यास करना चाहिए।