पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/७०

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पाश- पाश का वर्णन संक्षिप्त ही है। पाश दस होने चाहिए। पाश की डोरी कपास, मूँज, (मूँज एक प्रकार की घास है), तांत अथवा पेड़ के मज़बूत छाल से बनानी चाहिए। पाश बायें हाथ से लेकर दाहिने हाथ में फेंकना चाहिए। पाश को कुडलाकृत कर मस्तक पर फेंकना चाहिए। चर्मवेष्टित और तूणान्वित मनुष्यों पर इस पाश का प्रयोग करना चाहिए। वल्गित, प्लुत और प्रवजित, ऐसी अवस्था में पाश का प्रयोग करना चाहिए। शत्रु को प्रथम जीत कर बाद में पाश डालना चाहिए।(कहीं कहीं पर श्लोकों का अर्थ स्पष्ट न होने से भाव भी स्पष्ट नहीं हुआ है)।

तलवार- तलवार बाईं ओर बांधनी चाहिए। बाएँ हाथ से म्यान पकड़कर दाहिने हाथ से तलवार निकालनी चाहिए। तलवार ६ अंगुल चौड़ी होनी चाहिए। लंबाई अथवा ऊँचाई ६ हाथ की होनी चाहिए। वर्ण (कवच) लोहे की पतली शृंखला (शलाका) और तारों से गुहकर तैयार करना चाहिए। कवच के भिन्न भिन्न प्रकार हैं।

भाता चमड़े का होना चाहिए। वह मज़बूत और नया होना चाहिए। ऊपर का भाग टेढ़ा ऊपर की ओर झुका होना चाहिए।

सोटों का उपयोग- दाहिने हाथ में लगुड़ (डंडा) लेकर तान कर मारना चाहिए अथवा दोनों हाथों से मारना चाहिए। (उभाम्यामथ हस्ताभ्याम् कुर्यात् तस्य निपातनम्।) बध बहुत ही सफाई से होना चाहिए। [अल्केशेन ततः कुर्वन्वधे सिद्धिः प्रकीर्तिता।]

धनुवेंद- अ० २५२। आयुध, ढाल, तलवार, पाश , शूल, तोमर, गदा, परशु, मुद्गर, भिंदीपाल, लगुड़, पट्टिश, कृपाण, क्षेपणी, धनुष, बाण, चक्र ये आयुध हैं। ढ़ाल तलवार की क्रियाएँ ३२ प्रकार की हैं। इनके नाम ये हैं-भ्रान्त, उद्भ्रान्त, आविद्ध, आसुत, विसुत, सुत, संपात, समुदीश, श्येनपात, आकुल, उद्धूत, अवधूूत, सव्य, दक्षिण, अनालक्षित, विस्फोट, करालेंद्र, महासख, विकराल, निपात, विभीषण, भयानक, प्रत्यालीढ, आलीढ, वराह, लुलित, समग्र, अर्ध, तृतीयांश, पाद, पादार्ध, वारिज इत्यादि।

पाशक्रिया- परावृत, अपावृत, गृृहीत, लघु, ऊर्ध्वक्षिप्त, अधःक्षिप्त, संधारित, श्येनपात, गजपात, ग्राह-ग्राह्य-ये ग्यारह प्रकार पाश धारण के हैं।

पाश फेंकने के प्रकार- ऋजु, आयत, विशाल, तिर्षक और भ्रामित।

चक्र- छेदन, भेदन, पात, भ्रमण, शमन, विकर्तन और कर्तन।

शूल- आस्फोट, क्ष्वेदन, आंदोलिक, भेदत्रास, आघात।

तोमर- ऋजु-घात, भुजा-घात, पार्श्व-घात, दृष्टि-घात।

गदा- आवृत, परावृत, पादोद्धात, हँसमर्द, विमर्द।

मुद्गर- ताड़न, छेदन, चूर्णन, भिंदीपाल, संश्रान्त, विश्रान्त, गोविसर्ग। लगुड़ी (लकड़ी) की क्रियाएँ भी वैसी हैं।

वज्र- अन्त्य, मध्य, परावृत, निदेशान्त।

कृपाण- हरण, छेदन, घात, भेदन, रक्षण, पातन, स्फोटन।

क्षेपणी- त्रासन, रक्षणघात, बलोद्धरण और आयत।

गदायुद्ध में विशेषतः शारीरिक क्रियाओं की आवश्यकता होती है। उनका वर्णन इस भाँति है- सप्तांग, अवदंश, वराह, उर्द्धतक, हस्ताव-हस्तमाली, एकहस्तावहस्तक, विहस्त बहुपाश, कटिरोचित, कोद्गत, उग, ललाट।

गदायुद्ध की हस्तक्रिया के सामान्य लक्षण- करोभ्दूत, विमान, पादाहति, विपादिक, गात्रसंश्र्लेषण, शांत, गात्रविपर्यय, ऊर्ध्व प्रहार, घात, गोमूत्र, पादक, तारक, दंड, कवरी बंध, तिर्यक्बंध, अपामरी, भीमवेग, सुदर्शन, सिंहक्रांत, गजाक्रांत, गर्दबाक्रांत। इसमें बहुत सा भाग दुर्बोध और पारिभाषिक शब्दों से भरा हुआ है। प्रायः ये अब लुप्त हो चुके हैं।

नियुद्ध- बाहुयुद्ध, आकर्षण, विकर्ष, ग्रोवा- विपरिचर्त, पर्यासत, विपर्यासत, पशुमार, अजीविक, पादप्रहार, आस्फोट, कटिराचित, गात्र-श्र्लेष, स्कन्धगत, महीज्याजन, उरुललाटघात, विस्पष्टकरण, उद्धत, अवधूत, तिर्यङ्मार्गगत। इसमें विशेषणों अर्थ लगाने योग्य है।

गजयुद्ध- गजारोही, गजस्कंध, अवक्षेप, अपरांगमुख, देवमार्ग, अधोमार्ग, अमार्ग, गमनाकुल, यष्टिधात, अवक्षेप, जानुबंध, भुजाबंध, गात्रबंध, पिपृष्ट, सोदक, शुभ्र भुजावेलित। यह हाथी पर के योद्धाओं की युद्धक्रिया है।

हाथी के संरक्षणार्थ दो अंकुश धारण करने वाले, एक गर्दन पर बैठने वाला, दो स्कंधों पर बैठे हुए धनुर्धारी अथवा ढाल तलवारधारी होने चाहिए।

प्रत्येक रथ और घुड़सवार के रक्षणार्थ तीन