पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/७१

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घुड़सवार और धनुर्धारी रहने चाहिए। धनुर्धारियों के रक्षणार्थ चर्मधारक रहना चाहिए।

अ० २५३ में व्यवहारिक त्रिपय हैं। इसके नियम और विचार-पद्धति धर्मशास्त्र के समान विचार करने योग्य हैं। अ० २५४ में ऋण देने के नियम हैं। अ० २५५ में दिव्यप्रमाण दिया है। अ० २५६ में दाय विभाग प्रकरण है। अ० २५७ में सीमाविवादि निर्णय हैं। अ० २५८ में वाक्यपारुष्यादि प्रकरण हैं। (Hindu Law) आजकल हिन्दुओं के लिए जो कानून प्रचलित हैं वह बहुत अंश में इसी के आधार पर हैं। विस्तार से इसका वर्णन नहीं दे रहे हैं।

जादटोनों में वेदों का उपयोग- अ० २५६ ऋग्विधान। यों तो प्रत्येक कार्य के लिए ही, किन्तु विशेषकर अभिचार के लिए जिन ऋग्वेद के मंत्रों का उपयोग हुआ है उन्हें ऋग्विधान कहते हैं। गायत्री जप, मेधाकर्म, सदस्पति तीन शुचाएँ हैं। आगे मृत्यु नाशक नौ शुचाएँ, यात्रा निर्भय होने के लिए 'ते पंथा' वाली ऋचा और निरोग होने के लिए 'मित्रप्राज्ञ पुरन्दगम्' की ऋचा है। एक मंत्र ऐसा है जिसके पढ़ने से जाति-अंष्टत्व प्राप्त होता है। इन्हीं सब का वर्णन ऋग्विधान में है। इस भाँति अन्य तीन वेदों के भी विधान हैं।

अ० २६० में यजुर्विधान। इसके पूर्व के अध्याय में फल-प्राप्ति के लिए जो हवन किए जाते हैं, उनमें किन भिन्न भिन्न हविर्द्रव्यों का प्रयोग करना चाहिए उसका वर्णन दिया है। शत्रु विद्वेष के हवन के लिए काक और उल्लू के पंखों को काम में लाना चाहिए। ऋग्विधान में तो केवल ऐन्द्रजालिक माया का ही उल्लेख आया है किन्तु यजुर्वेद में तो उद्घाटन विधि का भी प्रयोग आया है। अ० २६१ में सामविधान। इसमें अंजन,मोहन इत्यादि का भी वर्णन आया है। अ० २६२ में अथर्वविधान और अ० २६३ में उत्पात शान्ति का उल्लेख है।

उपासना विषय- अ० २६४ में देवपूजा, वैश्वदैव बलि वर्णन। अ० २६५ में दिग्पालादि स्नान। अ० २६६ में विनायक स्नान, स्वप्न में अनेक अपशगुन होने पर उसके परिहारार्थ स्नान। अ० २६७ में महेश्वर स्नान, लक्ष कोटादिकों का वर्णन। अ० २६८ में निरांजना विधि। अ० २६९ में छत्रादि प्रार्थना। अ० २७० में विष्णुपंजर।

राजकीय तथा साहित्यक इतिहास- अ० २७१ में वेद शाखादि कथन। अ० २७२ में पुराण दानादि महात्म। अ० २७३ में सूर्यवंश। अ० २७४ में सोमवंश। अ० २७५ में यदुवंश वर्णन। अ० २७६ में कृष्ण के द्वादश संग्राम। अ० २७७ में गजवंश वर्णन। तुर्वशों की कथा है। यह केवल पांडवों तक का ही है।

आर्युवेद-(अध्याय २७८-३०५) इनमें मनुष्य वैद्यक, पशु वैद्यक, वृक्ष वैद्यक, और बीच बीच में भिन्न भिन्न विषय हैं। अ० २७९ में सिद्धौपद्यालय। अ० २८० में सर्वरोग हरण औषधि। मुख्यतः व्याधि चार प्रकार की हैं- शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक (बाहरी) और सहज। अ० २८१ में रसादि लक्षण, सोमज रस, स्वादु, अम्ल, लक्ष तथा अग्रिज-कटु तिक्त और कपाय। अ० २८२ में वृक्षार्युवेद। अक्ष वृक्ष उत्तग में, वटवृक्ष पूर्व में दक्षिण में आम्र, अश्वत्थ वृक्ष लगाना चाहिए। नींबू, अशोक, पुनागड़, शिरीष, प्रियंगव, कदली, जामुन, मौलसरी, अनार, इन वृक्षों को प्रातः काल और संध्या के समय पानी देना चाहिए।

उखाड़कर फिर से लगाए हुए वृक्ष को वर्षा ऋतु में यदि ज़मीन सूखी हो तो उसे रात्रि में भी पानी देना चाहिए। उत्तम २० हाथ, मध्यम २६ हाथ, और कनिष्ट १२ हाथ-यह वृक्ष लगाने का प्रमाण है। यदि वृक्ष को फल न आए तो शस्त्र से उसकी कलभ करनी चाहिए। वृक्ष को फल आता हो परन्तु वह पग्पिक नहीं होता हो तो उसमें वायबिरंग और घी, खाद में मिलाकर डालना चाहिए। तथा हुलगे, उड़द, मूँग, तिल, सत्तू और घी का चूर्ण कर ठंडे पानी में मिलाकर वृक्ष को देना चाहिए। इस क्रिया से वृक्षों में फूल और फल उत्तम आते हैं।

वृक्षों में पुष्प फलादिकों की वृद्धि होने के लिए वृक्ष को बकरी की चिष्ठा, सत्तू, तिल, गोमांस, और पानी के साथ रात्रि में देना चाहिए। वृक्षों की वृद्धि मछलियों के पानी से होती है। वृक्षों की कीड़ी नाश करने के लिए वायबिरंग, चावल, मछलियों का मास पानी में मिलाकर वृक्ष को देना चाहिए।

अ० २८३ में अनेक रोगों का नाश करने वाली औषधियाँ हैं। अ० २८४ में मंत्र रूपी औषधियाँ हैं। अ० २८५ में मृतसंजीवन सिद्धियोग हैं।

अ० २८६ में मृत्युजय योग औषधियाँ हैं, अ० २८६ में गज चिकित्सा है। लम्बी सूँड़ और बड़े उच्छ्वासवाले हाथी "प्रशस्त" कहलाते हैं। हाथी को २० अथवा २८ नख होने चाहिए। उनको जोड़े में मद आना चाहिए। दाहिना दाँत ऊँचा,