पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/७२

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और शब्द मेघ के सट्टश होना चाहिए। कर्ण विशाल और उस पर सूक्ष्म बिंदू होने चाहिए। तदनंतर हाथी को कौन सी औषधियाँ देनी चाहिए इसका विचार किया है।

अ० २८८ में अश्ववाहन सार। इसमें घोड़े का वेग, चलने का ढंग, घोड़ा कैसा शिक्षित होना चाहिए- इसका उल्लेख है। अ० २८९ अश्व चिकित्सा, औषधि। अ० २९० में अश्व शान्ति। अ० २९१ में गज शान्ति। अ० २९२ में गवार्युवेद, तथा मन्त्र परिभाषा। अ० २९४ में नाग लक्षण, सर्पादिकों की जातियाँ और उनके प्रमाण।

विष वैद्यक- (अ० २९५-अ० २९८) अ० २९५ में दंश चिकित्सा। अ० २९६ में पंचाग रुद्र विधान, अ० २९७ में विष-हरण करने के मन्त्र और औषधियाँ। अ० २९८ में गोनसादि चिकित्सा। अ० २९९ में बालादि ग्रह हर बालतंत्र। अ० ३०० में ग्रहादि पीड़ा शमनार्थ मन्त्र। अ० ३०१ में सूर्याचन। अ० ३०२ में अनेक मंत्र औषधि कथन। अ० ३०३ में अंगाक्षरार्चन।

मन्त्र उपासना विषय- अ० ३०४ पंचाक्षतादि पूजा मन्त्र। अ० ३०५ में विष्णु नाम। अ० ३०६ में नृसिंहादि मन्त्र। अ० ३०७ में त्रैलोक्यादि मोहन मंत्र। अ० ३०८ त्रैलोक्य मोहिनीलक्ष्म्यादि पूजा। अ० ३०९ त्वरितादि पूजा। अ० ३१०-अ० ३११ में त्वरिता मूल मंत्र। अ० ३१२ में त्वरिता विद्या। अ० ३१३ में नाना मंत्र। अ० ३१४ में त्वरिता ज्ञान। अ० ३१५ में स्तंभनादि मंत्र। अ० ३१६ में नाना मंत्र। अ० ३१७ में सकलादि मंत्रोद्धार। अ० ३१८ में गण पूजा। अ० ३१९ में वागेश्वरी पूजा। अ० ३२० में मंडल पूजा। अ० ३२१ में घोरास्त्रादि शान्ति कल्प। अ० ३२२ में पाशुपत शान्ति। अ० ३२३ में षडंगान्य घोरास्त्राणि। अ० ३२४ में रुद्र शान्ति। अ० ३२५ में रुद्राक्षादि लक्षण और धारण, अंशकादि मंत्र। यह मंत्र शास्त्र का ही भाग है। अ० ३२६ में गौर्यादि पूजा। अ० ३२७ में गौर्यादि महात्म्य।

छंद, काव्य, नाटक, नृत्य, शिक्षा, अलंकार।(अ० ३२८-अ० ३४८) अ० ३२८-३२९ में ग्रन्थकार का कथन है कि छंदसार पिंगलों के ग्रन्थ से उतारा गया है-(छंदोलक्ष्ये मूलजैस्तैः पिंगलोक्तम यथा क्रमम्) अ० ३३० में छंदःसार। अ० ३३१ में छंद की जाति। अ० ३३२ में विषम वृत्त। अ० ३३३ में अर्ध समवृत्त। अ० ३३४ में समवृत्त। अ० ३३५ में प्रसाद वर्णन। अ० ३३६ में शिक्षा(आधुनिक शिक्षा की तुलनामें बहुत ही कम है। कुल २२ श्लोक हैं और उनमें भी श्लोकों के तीन चरण शिक्षा के विषय में नहीं हैं')अ० ३३७ में काव्यादि लक्षण। अ० ३३८ में नाटक निरूपण। अ० ३३९ में रस निरूपण। अ० ३४० में हत्या, अंगविक्षेप कर्म निरूपण। अ० ३४१ में अभिनयादि निरूपण। अ० ३४३ में शब्दालंकार। अ० ३४४ में अर्थालंकार। अ० ३४५ में शब्दार्थालंकार। अ० ३४६ में काव्य गुणविवेक। अ० ३४७ में काव्यदोष विवेक। अ० ३४८ में एकाक्षराभिधान। इसमें एक अक्षर का एक अर्थ अथवा अधिक अर्थ दिए हैं।

व्याकरणसार- (अ० ३४९-अ० ३५९) कात्यायन के लिखे हुए व्याकरण को ही असली व्याकरण हैं। प्रथम ३४ सूत्रों का पाठ दिया है। इसमें सूत्र अथवा वृत्ति अथवा वार्तिक भाग नहीं है केवल शब्द का स्वरूप दिखाया है। अ० ३५० में संधि सिद्धरूप। अ० ३५१ में सुविभक्त सिद्धरूप। अ० ३५२ में स्त्रीलिंग शब्द सिद्धरूप। अ० ३५३ में नपुंसक शब्द सिद्धरूप। अ० ३५४ में कारक। अ० ३५५ में समास। अ० ३५६ में तद्धित् रूप। अ० ३५७ में उणादि सिद्धरूप। अ० ३५८ में तिङ्विभक्ति सिद्धरूप। अ० ३५९ में कृत सिद्धरूप।

शब्दकोश- अ० ३६० में स्वर्गपातालादि वर्ग में आए हुए नाम। ये श्लोक अमरकोश में भी पाए जाते हैं। अ० ३६१ में अव्ययादि। अ० ३६२ में नाना अर्थ वर्ग। अ० ३६३ में भूमिवनौषधिवर्ग। अ० ३६४ में नृब्रह्मक्षत्रविटशुद्र। अ० ३६५ में ब्रह्मवर्ण। अ० ३६६ में क्षत्रविटशुद्र वर्ग। अ० ३६७ में सामान्यनामलिंग। अ० ३६८ में प्रलय वर्णन। अ० ३६९ में आत्यंतिक लय, गर्भोत्पत्ति। मृतक का शरीर नष्ट होने पर वायु रूप से यमलोक जाता है और वहाँ दुख भोगकर वायु रूप से गर्भ में आता है। मासानुक्रम से गर्भ की वृद्धि और उसकी उत्पत्ति होती है। अ० ३७० में शरीर के अवयव। इसमें हाथ पैरों की नसें, नाड़ियाँ, अस्थि तथा दूसरे अवयवों की संख्या दी है। अ० ३७१ में नरक निरूपण।

योग- अ० ३७२ में यम नियम। अ० ३७३ में आसन प्रणायाम। अ० ३७४ में ध्यान। अ० ३७५ में धारणा। अ० ३७६ में समाधि। अ० ३७६-३८० में अध्यात्म ब्रह्मज्ञान। इसमें दिया हुआ जड़भरत संवाद भागवत में भी है। परन्तु श्लोक-रचना भिन्न है। अ० ३८१ में गीतासार, कृष्णार्जुन संवाद। इनका तात्पर्य प्रायः गीता के श्लोकों के समान है। अ० ३८२ में यम गीता। इसमें प्रत्येक के विशिष्ट