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प्रत्येक इन्द्रियों की ठीक ठीक क्रिया न होने से जठरादि पचनेंद्रिय पर इसका प्रभाव श्रवश्य पडता है। यदि स्वतन्त्र रूप से उत्पन्न हुई मन्दाग्निका आरम्भ् में ही ठीक औषघिउपचार नहीं किया जाता तो अन्त में अन्य रोग भी मनुष्य को आ घेरते हैं। अतः मन्दाग्नि चाहे स्वतन्त्र रूप से हो अथवा किसी अन्य रोग के कारण हो, आरम्भ में ही इसका उचित रूप से निदान करना आवश्यक है।

लक्षण-भिन्न भिन्न रोगों द्वारा उत्पन्न हुई मन्दाग्निके भिन्न भिन्न लक्षण होते हैं। इन सब्का व्यौरा देना तो यहॉं पर कठिन है, किन्तु साधारण लक्षणों का वर्णन नीचे दिया जाता है। बध्दकोष्ठ अथवा अतिसार द्वारा उत्पन्न हुई मन्दाग्नि में जीभ पर सफेद सफेद फुई जमी रह्ती है और रड्ग मटमैला होता है, मुख से दुर्गन्धि आती है, तबीयत सदा गिरी हुई रह्ती है और किसी काम में रूची नहीं होती। भूख नहीं लगती, जी भिचलाया करता है, खट्टी डकारें आती रहती हैं, अक्सर ह्रुदयशूल होता रहता है औत पेट में अफार रहा करता है। इसी प्रकार आम्लपिंत्त्कें रोगी को होत रहता है और कभी कभी कै हो जाती है।

निक्रुष्ट पदार्थों के खाने से भी यह शिकायत पैदा हो जाती है। ऐसी दशा में पेट में दर्द हो जाता है, जी मिचलाता है, किन्तु यदि कै हो जाय तो चित्त स्वस्थ हो जाता है। बहुत दिनों तक अपच रहते रहते जब यह रोग पुराना पड जाता है तो भोजनोपरांत पेट में गुडगुडाहट होती है, कभी कभी दर्द भी होता है, किन्तु दर्द न होते हुए भी पेट सदा भारी रहता है और अफार हो जाता है। चाहे भोजन किया हो चाहे न किया हो; चाहे हलके पदार्थ खाये गये हों चाहे गरिष्ठ; ये सब लक्षण सदा पाये जायेंगे। आमाशय, पक्वाशयमें अन्न शीघ्र ही न पचने से उसी में सडने लगता है और तय खट्टी और दुर्गन्धि युक्त डकारें आती रहती है। कभी कभी डकार के साथ गरम, खट्टा और कडुवा पानी मुँह में भर आता है और उसी के साथ खाये हुए अन्न के कण मुख में आ जाते है। मुँह में पानी भर आता हैं और छाती मैं जलन होती है। ये लक्षण भोजन के कुछ समय बाद हष्टिगोचर होते हैं। पेट की अवस्था जीभ से सूचित हो जाती है। पेट में कोई विकार होने से जीभ पर सफेद फुई देख पडने लगती है और खुरखुरी हो जाती है। जिह्वा का भाग लाल रहता है और निनावाँ हो जाता है। कभी कभी जीभ का रङ मट मैला हो जाता है। इन सब दशाओ में पाचनशक्ति को सुधारने के लिये उचित चिकित्सा करनी चाहिये। रोग के आरम्भ में कभी कभी दस्त आने लगते है। जितना ही यह रोग पुराना होता जाता है उतना ही बद्धकोष्ठ होने का भय रहता है । बहुधा अपच से मनुष्य को उतना कष्ट नहीं होता जितना इससे उत्पन्न हुए अन्य रोगों से होता है । रोग पुराना हो जाने पर ह्रुदय में पीडा, साँस फूलना, धड़कन, सिर में दर्द, चक्कर, नेत्र-दोष, हाथ पैर में ऐंठन्, उनका ठएडा पड़ जाना, भोजन से ग्लानि आदि उत्पन्न हो जाती है । इसका प्रभाव मानसिक स्थिति पर भी पडता है। स्वस्य निद्रान्नहीं आती, स्वभाव् में चिड़चिड़ापन आ जाता है, चित्त में सदा उदासीनता रहती है।

उपचार- सबसे पहले केवल भोजन पर ध्यान देना आवश्यक है । रोगी को अवस्था, पाचन शक्ति और कर्यक्रम को भली भाँति समझ कर उसका आहार निर्णय कस्ना चाहिये । बहुधा देख् जाता है कि भूख से भी अधिक खाने की प्रकृति कुछ मनुष्यों में होती है, किन्तु यह सदा वर्जित् हैं। जिन्हें अपच रहता हो उन्हें तो भूख से कम खाना चाहिये । भोजन पचने को कमसे कम ६ घन्टे चाहिये। अतः भोजन में कम से कम इतना अन्तर तो अवश्य ही होना चाहिये । जिस भाँति बारम्बार खाना बुरा हैं, उसी भाँति बहुत देर तक भूखा रहना, अधिक उपवास करना भी हानिकारक है। हर एक मनुष्य को अपनी प्रकृति के अनुकूल ही भोजन करना चाहिये। प्रिय होते हुए भी जिस पदार्थ से हानि होती हो उसको न खाना चाहिये। जिनको अपच रहता हो उनको बहुत पौष्टिक ओर गरिष्ट पदार्थ नहीं खाने चाहिये। हलके पदार्थ का सेवन लाभदायक होता है । धीरे धीरे जिस क्रम से आमाशय में शक्ति बढ़ती जाय उसी प्रकार भोजन में भी अंतर करते रहना चाहियें। भोजन के साथ पानी अधिक नहीं पीना चाहियें । भोजन के पूर्व पानी पी लेने से पूर्वका विकार दूर हो जाता है ओर पहला भोजन पचने में सहायता होती है क्योंकि जठराग्नि प्रदीप्त होती है । भोजन धीरे धीरे चबा चबा कर शान्तिपूर्वक करना चाहिये। गर्दन का पिछला भाग, पेट और अँतडियों को सर्दी से बचाते रहना चाहिये। इनको गरम रखने से भोजन पचने में सहायता मिलती है। पैरों में मोजे [सरदी में]