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पहनना चाहिये । पेट में ऊनी पट्टी लपेटे रहना चाहिये । घी और तेल में पकाया अथवा तला हुआ भोजन न करना चाहिये । अधिक चटपटा अथवा मसालेदार भोजन भी हानिकारक है। उघाला हुआ सादा भोजन करना चाहिये, फलों का व्यवहार लाभदायक है । यदि यह भी न पचे तो केवल दूध का सेवन करना चाहिये, किन्तु इसका भी अधिक सेवन हानिकारक हो सकता है । स्फूर्ती और उत्साह के लिये कुछ मनुष्य सुरापान करने लगते हैं, किन्तु इसका परिणाम बहुत बुरा होता हैं । अतः यह कभी सेवन न करना चाहिये । भोजन स्वस्थ होकर काना चाहिये और भोजन के उपरान्त तत्काल ही कठिन परिश्रम न करना चाहिये। यदि हो सके तो थोड़ा आराम करना चाहिये । शुद्ध वायु सेवन करना चाहिये। प्रातः काल उठकर ठण्डे जल से स्नान करना भी लाभदायक है।

औषधि उपचार- एक तो यह वैध्यक शास्त्र का बडा गहन विषय है, दूस्रे व्यक्तित्व का ध्यान भी इस में अनिवार्य है। अतः इस पर पूर्ण रूप से यहाँ लिखना तो बडा कठिन है, परन्तु सर्वसाधारण के लाभ के लिये कुछ उपयुक्त औषधियों के गुण तथा सेवनविधि लिखे जाते हैं।

बाई कार्बनेट आफ सोडा ( Bi-Carbonate of Soda ) अपच के लिये बडी गुणकारी ओयघि हैं । भोजन के पहले इसका सेवन करने से भोजन के दो तीन घण्टे पस्चात जो खट्टी डकारें आनी हैं तथा आम्लपित्त होता है उनका नाश हाता हैं। बिस्मथ ( Bismuth ) के प्रयोग से दाह का नाश होता है । यह वुकनी ( Powder ) अथवा पेय ( Liquid ) रुप में दी जा सकती हैं । आमाशय की क्रिया ठीक करने के लिये ओर भाजन पचाने के लिये थोडे प्रमाण में कुचलाका सन ( Iodide ) भी लाभदायक है। हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड ( Hydrochloric acid ) और पेपसीन ( Pepsine ) पाचन के लिये उपयोगी है। किन्तु यदि जी भी मिचलाता हो और वमन होने को शन्का हो तो इङ्लूहीन का प्रयोग लाभकारी होता है। यदि पिष्ठान्न भी न पचता हो तो डयस्टीस ( Diastase ) माल्ट ( Malt ) अथवा पक्का पपीना सेवन करना चाहिये। आमाशय या अँतडो में श्रन्न सडने न देने के लिये सल्फेट आफ सोडा ( Sulphate of Soda ) देना चाहिये। यदि पेट में सडा हुआ अन्न हो तो वातासरण के लिये तथा तन्तुनाश के लिये ( Germicide ) ( Bismuth Silicate ) बिस्मथसिलिकेट ( Pathol ) आदी उत्तम औषधियों में से अथवा किसी देशी दवाई का प्रयोग अपनी प्रक्रुति के अनुसार किसी होशियार चिकित्सक को दिखाकर ही करना चाहिये।

वैद्यक शास्त्र में इसपर पूर्ण विचार किया गया है । कुछ आवश्यक बातें नीचे उद्धत की जाती हैं । मन्दाग्नि का अर्थ अजीर्ण है और अजीर्ण से तात्पर्य है किया हुआ भोजन अथवा जल का न पचना । अन्न का रसादि धातु में योग्य रीति से रूपान्तर न होकर विकृत अत्र-ग्स बनने से यह रोग उत्पन्न होना है । ( अन्न के न पचने से जो रोग उत्पन्न होते हैं उनके विस्त्रुत् वर्णन के लिये अष्टांग ह्रुदय् अ० ८ प्रकरण देखिये।)

अजीर्ण प्राय: तीन प्रकार के कहे गये हैं- (१) वानजन्य (२) पित्तजन्य और् (३) श्लैष्मिक। इन्ही विकारों से विसूचिका, आमदौष, अलसक इत्यादि रोग उत्पन्न होते हैं । कब्ज रहना या दस्त हो जाना, भोजन से ग्लानि होना, वायु दूर न होना, पेट पर अफार होना, चक्कर आना इत्यादि अजीर्ण के लक्षण है । पित्त के दोष से जो अजीर्ण होता हैं उसे विदग्धाजीर्ण भी कहते हैं। इसीसे "आम्ल पित्त" नामक रोग हो जाता है। कफके अजीर्ण में आँखें तथा गाल सूज आते हैं, बिना भोजन किये हुए भी दडकारे आती रहती हैं। मुँह में पानी भरता रहता है, जी मिचलाता है, चक्कर आते रहते हैं, और शरीर में जडता मालूम होती रहती है। इनके अतिरिक्त कह सकते हैं। इस में किए हुए भोजन का ठीक प्रकार में धातु आदि रसों में रूपान्तर नहीं होना। अतः भोजन में रूची नहीं होति, शरीर निचैल होता जाता है और मनुष्य उत्साहहीन होने लगता है। किसी भी प्रकार का अजीर्ण बहुत बढ जाने पर मूर्च्छ, निद्रा में प्रलाप, चमन,चक्कर आदी भयंकर गंग उत्पन्न होते है। किसी से अलसक, विसूचिका तथा विलंबिका आदि मनुष्य पर आक्रमण कर बैइथ्ता है और म्रुत्यु तक हो जाती है। यदि दुर्बल पाचन शक्तिवाला बारम्बार बहुत भोजन करता है नो वातादिदोष कुपित होकर पेट् में सडे हुए अन्न से मिलकर विसूचिका पैदाकर देते हैं, जिससे दस्त आने लगते हैं। विसूचिका के लक्षण कालरा ( Cholera ) के समान होते हैं। यदि यही सडा हुआ अन्न छालीमैं दाह दुआ कानी हैं, प्यास अधिक लगनी है, स्वट्टी व कड़वी डकारें यांनी हैं 1 इसीसे 'आक्ष- पित्त' नामक रोग हो जाना हैं १ कफके अजीर्णमैं आँखें नया गाल मूत्र आते हैं. विना र्मपृज्ञन दिये हुए भी डकारें आपी न्दनी । मुँहमें पानी भरता 'हता हैं, जी मिचलाना हैं चक्कर आते रहते हैं और शरीर्मा जड़ता माटा। होनी एती है इनके अतिरिक्त एक प्रकास्वा ओर अजीर्ण है जिसे अंसाजीर्णकह सकते । इसमें किये दुम: भोजवका टीक प्रका" से धातु आदि १सोंमैं स्नपान्नम्ल नहीं डोमा 1 अन: भोजनप्रे रुचि नहीं होनी, शरी?" निर्वल होना जाना हैं ओय' मनुष्य उत्साहहीन होने लगना हैं । किसी मी प्रकारका अजीर्ण वदून वढ़जावे पर मूच्छरें, निद्रामैं प्रलाप, वमन, चकर आदि