पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/७८

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अग्रदामी ज्ञानकौप ( अ ) ६ ८ अग्रवाल दृर्दहँच्चाहैद्देर्णर्वड़ेद्देड्डाड्डेप्रेहूँहैंहैं ओज द्दहैंहैंहँर्दहैंहँहैंशां "द्देक्वडेहॉ सैश्ले है हूँहँएँहैंद्देड्डे देक्याहैंदृ ' में भी अग्नि का बिशेष स्थान है । इम शब्दका गुण आन, ध्यान शांदेकै जिये भकौको प्रिय है ।

अर्थ भी डाग्निमन्विण का सकते हैं । इनकीकांवेना विशेपस्तटिन्तिकनधिषेटाऔशथ१ट दसवें अनेक पगित्र ओर धातैरैदा कर्म किये ५ चप्रा-सुप्रसिद्ध कबिनन्ददत्सतीकै वंगक्रा है । जाते हैं ५ षारसिथोंमैं यह प्रथा है कि उत्तके । उदाहरणार्थ -

प्रन्विरकौ पचित्र अग्नि क्यों त्रुभले नहीं - कुण्डल लहिहं। कपोल जाल अस परम सुदेसा । देना चाहिये ( सनाननी हिन्दुओंमैं भी अग्नि- हैंतीनकोनिरोंति अकास लजन राकेसदिमेरुग प्न होनी ष्णण अपने रुननकृराउकौ ब्रग्निफमी यक कुटिल विशाल सरोरुह देन बुहार । घुमने नहीं देते ) । अन: इसी स्थान पर अग्नि मुख पंकजके निकट मनो अलि पौना आप मैं खुदग्लाबुप्नगृभरहतोदै । इनके व्रच्चिरौड्स व्रग्निपृजा अग्रवाताअगस्नात्ता श्च-भादृत्रकौ एक अ तिय एक विशेष स्थान होता है, उसीकी ३ "दर 1 प्रसिद्धजानि । इस शादके भिन्न भिन्न अर्थ टीका- मैंहा" अथवा ३"अ५यारी"कूहनाअहिंफ उपयुक्त शागैतै किये हैं…( १ ) श्रेष्ठ वात्तक( तो ) अग्र- होगा । 'बुर' शन्हका अथ द्वार' हैं ओहाँमेहेरं' प्यारी, ( ३ ) राजा मानधानाकी सन्नदृन का "मिथ दृपैना' । अत: इस शब्दका अर्श हुआ: - ' ( ४ ) ब्रहींघक्रकै पुब्र राजा अप्रनाथ अथवा अग्र-

"मिब्रदेव त्तफपहूँनका द्वार' । व्यास प्रन्दिदृये

ङ्कदृग्निफै ओक्ररै भेद होते हैं:--] दे) आणि वंऐराम ( तो है ब्रातिराआदरान और ( ३ ) आतिश डार्दगाहृ : ५३३' भिन्न भिन्न पुजारी नंहते गौकुं उतरु लिये भिन्न मिष स्थान निर्धारित मृते हैं । अनुदानों-आसाम प्रान्तमैं इस जानि को जब्रसंखम लगभग २८० है गृ दृड्डहाएँपृ की अनेक दृश्र्वपूँहिपौमैंसै यह भी एक है । इस जानि के मनुब्ध क्लदहनकें समय र्मप्र पढते हैं और आजकी दक्षिणा ओघ? दान भी लेते हैं । ( हेन्सड्स १९ट्ठे१ भाग ३) अग्रदानी शून्फा अथ ( अएँहैं हादृ हांडा ) मृत का दान लेने वाला व्रणण है । है प्रेतोद्देशेन थहानम् दीयते तन्मतिप्राही 1) । इसकी व्याख्या इस प्रकार हैं:- लोमृपैं किंस्म मूद्राणा भप्रेत्रानं गृहीत्तवान् । त्रष्ण मृत दानामाँ अपनी बभूव क्ष: 1; डाम्नदासांच्चाद जयपुर राज्यके अन्तर्गत "डाडा नामक स्थानके निवासी ये। ग्रह भी मृल्लभाचार्यजीकी शिमाँभैलंल्यरान्हें श्रीकृष्णदास क शिष्य थे, परन्तु थे गर्मापासनाकौ ही ओर अधिकआकृप्ट हुए और श्रीराव्रबौकौ व्रक्तिहँदृ

पृर्यानद्भुतसे भजन रचे । हलके शिष्य, ग्रसिंद्ध ।

भक्तमाखके रचयिता, मश्र्वथसृहाव्र ( प्रसिद्ध नाम नाभादास ) थे; जिनका समय सं० १भूआ१६२प है लगभग निमित किया जाता थे । इस विचार स अग्रदासजीका समय ब्राग्गदासके गुरु हाहेके कारण चर्शिहैरा स्मा पेचामृ वर्ष पहिल होरादृ । श्चकौ निततिबित रचनायें मिलती हैं५ ( १ शूक्वमृदंलियरें ( तो ) श्ररैंरामध्यान मञ्चर्ग ( ३ है हितोपदेश भापा ( ४ है राअनांरेत्रके पद ।

तेनकै वंशज ।

दृ ज्यभिट्वेअप्रवासौकी ज्यत्तिकौकां। पुराणों में भी मिलती है । पूर्वकाखमैं प्रनापनष्टश्यके राजा धनपातके अष्ट पुत्र ओर एक कंपा' थी] कन्या

खों कदु नाम मुफुटद्वापाँणु हूँ। यस्त्रवरुश्यऋपिखु दृहूँमहीं गद । आठ पुत्राम ख नल नामका पुप्र ना मसानं' से बिदृक्त होकर साधु हँ। गया । अन्य सानंहूँ

1 शिप, नन्द, कुच, कुमुद. बलम, शेखर शा अनिलसात ज्ञाति, राजा हुए। शिवर्का जम्बू

५ हीपमिला । उसीके कूलमेंविश्य नामक राजा हुआ उसका पुष वैश्य था । इसके वंशज इवी

' नाच्चसे प्रस्थान द्वार । फ्लो फुलके ज्जाजाओने प्लातेंर्गई नट पर शव्रनाथका भन्दित्रट्वे बनवाया

३ और बैषाल ब्रसणा । इसी कृलमै मधु कोर

८ महोंघाइं हो गये हैं जो व्यापागाँ वडे प्रवीण ये ।

ट्टास्तभूके फुखुये द्रापनंकै चेनुर्थहुमुँढ़पैहँड्डे गट्ठा।

अग्रसन हा गये हैं । यही अग्रधालाफ पृवब थ ५

दक्षिणमै प्रनापनषाश" इनकी राजधानी भी : यह

ऐसा प्रतापी राजाथा कि हन्नफ इसकी मिन्नत?

का दम मनाथा । एक वार ऐसा दुमृप्राकिं

नाग लोकका राजा कुमुद अपनी कन्या माघथीसै

साथ इसकी राजधानी', आये। माधवाके रुप मैट्स' गुण गुश' युदृध हाँका’ त्द्धृदृकौ इच्छा उससे

' विवाहफी हुई किन्तु भाधबीफा विवाह गया। अप्र-

सेन सौ से ही गया । इन्हने इससे शुद्ध र्दत्काड़

दृ इसके गज्ययें वर्षा रोक दी । फलन: दोमीयें र्षाहुँ

' युद्ध चला, किन्तु व्रहादेवने मध्यस्थ दोशा' दीना

में सन्धि का। की । त्रन्यआत् राजा नगारी छोड़

दृ न१थटिनके लिये निकल पडा आच्चा मटालक्योंकौ

पूजा करता म्हा । इसने कपिलधारा ओर काशी पै विश्वनाथ-ब, भन्दिरमै अनेक यम किये । महा'