पृष्ठ:Gyan Kosh vol 1.pdf/८५

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के समान घृणित थता दुष्ट प्रकृति इन दोनों पंथों की नहीं होती। पंजाब के ओघर साधुओंसे इनमे कितनी भिन्नता है यह भी निश्चय रूपसे कहना कठिन है। अन्य पंथोंसे मुख्य भेद तो इनमे ये है की ये मल खाते है और नरमांस का भी सेवन करते है। खाने पीने के लिए मनुष्य की खोपड़ी का प्रयोग करते है। काली आदि देवियो के सक्त उपासक जो कठिन तथा गुड संस्कार करने वाले होते है उनमे नरमेघ और नरमांस भाक्सन वर्जित नहीं है । ऐसी उपासना ५ वीं शताब्दी में पुरविया बंगाल में प्रचलित थी ! कलि पुराण में नरबलि का उल्लेख स्पष्ट आया है । अब भी उसके बदले कबूतर, बकरे, भैंसे इत्यादि बलि दिए जाते है यहा सब प्रथाएं हिन्दुओं में अनन्यायों द्वारा प्रवेश कर गयी होंगी । अब भी असम की और से यहा प्रथा बहुत कुछ प्रचलित है । ऐसा अनुमान किया जा सकता है की अवध धोका इस धरम से बहुत निकट संभंध रहा होगा ।

   कुछ का दूसरा भी मत है जंगली जातिओं में  अब भी बहुत से जादू टोना करने वाले होते है । ये लोग अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए तथा दूसरों की दृष्टि से अपने को बचने तथा घृणा का पात्र समझाने  के लिए ऐसे घृणित आचार वेवहार करते है । अघोरिया का मूल यही होगा । सेव सिद्धांत के आधार पर सब एक ही है, भेद कहीं कुछ है ही नहीं । इसी से अवधधोका  का प्रचार हुआ । किन्तु यह कल्पना आधुनिक ही है ।  
   नरकपाल का बर्तन के समान उपयोग कुछ जगह  ऐसा भी विश्वास है की नरकपाल में विशेष जादू रहता है । भारत के अघोरियों के अतिरिक्त भी इसको उपयोग अन्य देशों में पूर्वकाल में होता था । पूर्व अफ्रीका का के वादों (Wadoe) जाती में राज्याभिषेक के समय राजा किसी युवक की खोपड़ी का बर्तन के स्थान पर उपयोग करता है । पूर्व राज पुरोहित के मरने के बाद जब नया पुरोहित बनाया जाता है तो वह पूर्व पुरोहित की खोपड़ी में पानी पीता है । इन लोगों की ऐसी धारणा है  की इस क्रिया से पूर्व पुरोहित की आत्मा नवीन पुरोहित में प्रवेश कर जाती है । हिमालय में हिमपात से मरी हुई स्त्रियों की खोपड़ी बहुत प्रेत बाधा दूर करने में नगाड़े के समान व्यवहार में लाई जाती है |  इन सब बातों से यह पता चलता है की पूर्वकाल में जो खोपड़ी इन सब क्रियाओं के लिए चुनी जाती थी वह विशेष सावधानी से चुनी जाती थी किन्तु आज कल अघोरी इस और बिल्कुल ध्यान नहीं देते । प्राचीन काल में यूरोप में जर्मन और केल्ट लोग भी इससे अनभिग न थे | एक कथा में इसका उल्लेख इस भांति मिलता है की अब अल्बाइन (Alboin) ने अपनी रानी से उसके पिता के कपाल में मदिरा लाने का बहूत आग्रह किया तो उसकी मृत्यु होगई (Panlas Diaconus History Langol ii-28 in Gummere Germain Ong. 120)   अब भी बहुतों का विश्वास है की आत्महत्या किये हुई मनुष्यकी खोपड़ी मैं जल पीनेसे अपसमार की व्याधि दूर होती है। 
   औघड़ों  को सजा मनुष्यों का शव खाने और मृतकों का अपमान करनेके लिये आधुनिक काल में बहुत से औघड़ों को कठिन कारावास दिया जारहा है।  १९६२ ई मे गोरखपुर के सेक्शन जज ने एक औघड़ को मृतक का शव सड़क पर घसीटकर ले जानेके अभियोग में इंडियन पैनल कोड की २७० और २६७ धारा के अनुसार ६ मास का कठिन कारवास दियाथा।  इसी प्रकार के और भी मुकदमो का पता १५५२ ई में पंजाब के रोहतक जिले में, और देहरादून में १५५४ ई में लगता है।  १५५४ ई में गंगा के तट पर नरमास भक्षण करते हुए एक अघोरी को दो यूरोपनियो ने पकड़ा था।  उसके झोपड़ी के चारो और बांस पर बहुतसे नरमुंड लटक रहेथे, जिनमे से एक तो बिल्कुल ताजा था।       
    अघोरी दीक्षा प्राय: ये लोग अपने मंत्र और दीक्षा विधि गुप्त रखते है।  बहुत सी बाते तो नवीन दीक्षा लेने वालों से भी गुप्त रखी जाती है।  अतः इसका विश्वास पूरा पूरा ब्यौरा मिलना तो कठिन है।  एक का कथन है की दीक्षा काल में गुरु शंख बजता है और अन्य अघोरी दुसरे बाजे बजाते है।  तदन्तर गुरु नर मुंड में पेसाब करता है और उसीसे भावी शिष्यकी खोपड़ी मुंडी जाती है।  तदन्तर वह नवीन शिष्य थोड़ी सी मदिरा और नीच जाति की भिक्षा का सेवन करता है।  गेरुवा वस्त्र धारण कर हाथ में दएढ धारण करके शिष्य अपने गुरु से कान में मंत्र लेता है।  कुछ का कथन है की इसी अवसर पर नरमांस भी आवश्यक है।  
    काशी के अघोरी दीक्षा के विषय में कहा जाता है कि अघोरियों के प्रथम पुरुष किनाराम की समाधि पर ही यह क्रिया की जाती है।  समाधिपर दो प्याले  एक में भांग और एक में मध रखे जाते है।  जो अधूरी दीक्षा लेते है अर्थात अपनी जाति