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हिन्द स्वराज्य

शिक्षाका साधारण अर्थ अक्षर-ज्ञान ही होता है। लोगोंको लिखना, पढ़ना और हिसाब करना सिखाना बुनियादी या प्राथमिक-प्रायमरी-शिक्षा कहलाती है। एक किसान ईमानदारीसे खुद खेती करके रोटी कमाता है। उसे मामूली तौर पर दुनियवी ज्ञान है। अपने माँ-बापके साथ कैसे बरतना, अपनी स्त्रीके साथ कैसे बरतना, बच्चोंसे कैसे पेश आना,जिस देहातमें वह बसा हुआ है वहाँ उसकी चालढाल कैसी होनी चाहिये, इन सबका उसे काफी ज्ञान है। वह नीतिके नियम समझता है और उनका पालन करता है। लेकिन वह अपने दस्तखत करना नहीं जानता। इस आदमीको आप अक्षर-ज्ञान देकर क्या करना चाहते हैं? उसके सुखमें आप कौनसी बढ़ती करेंगे? क्या उसकी झोंपड़ी या उसकी हालतके बारेमें आप उसके मनमें असंतोष पैदा करना चाहते हैं? ऐसा करना हो तो भी उसे अक्षर-ज्ञान देनेकी ज़रूरत नहीं है। पश्चिमके असरके नीचे आकर हमने यह बात चलायी है कि लोगोंको शिक्षा देनी चाहिये। लेकिन उसके बारेमें हम आगे-पीछेकी बात सोचते ही नहीं।

अब ऊंची शिक्षाको लें। मैं भूगोल-विद्या सीखा, खगोल-विद्या (आकाशके तारोंकी विद्या) सीखा, बीजगणित (एलजब्रा) भी मुझे आ गया, रेखागणित (ज्यॉमेट्री) का ज्ञान भी मैंने हासिल किया, भूगर्भ-विद्याको भी मैं पी गया। लेकिन उससे क्या? उससे मैंने अपना कौनसा भला किया? अपने आसपासके लोगोंका क्या भला किया? किस मक़सदसे मैंने वह ज्ञान हासिल किया? उससे मुझे क्या फायदा हुआ? एक अंग्रेज विद्वान(हक्सली)ने शिक्षाके बारेमें यों कहा है : "उस आदमीने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसके शरीरको ऐसी आदत डाली गई है कि वह उसके बसमें रहता है, जिसका शरीर चैनसे और आसानीसे सौंपा हुआ काम करता है। उस आदमीने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसकी बुद्धि शुद्ध, शांत और न्यायदर्शी[१] है। उसने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसका मन कुदरती कानूनोंसे भरा है और जिसकी इन्द्रियाँ उसके बसमें हैं,जिसके मनकी भावनायें बिलकुल शुद्ध हैं,जिसे नीच कामोंसे नफ़रत है

  1. इन्साफ़को परखनेवाली।