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जिक्र किया है: वह है गांधीजीका यंत्रोंके बारे में विरोध।
समालोचक इस विरोधको नामुनासिब और अकारण[१] मानते हैं। मिडलटन मरी कहते हैं: ‘गांधीजी अपने विचारोंके जोशमें यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह भी एक यंत्र ही है और कुदरतकी नहीं लेकिन इनसानकी बनायी हुई एक अकुदरती-कुत्रिम चीज है। उनके उसूलके मुताबिक तो उसका भी नाश करना होगा।' डिलाइल बर्न्स कहते हैं: 'यह तो बुनियादी विचार-दोष है। उसमें छिपे रूपसे यह बात सूचित की गई है कि जिस किसी चीजका बुरा उपयोग हो सकता है, उसे हमें नैतिक दृष्टिसे हीन मानना चाहिये। लेकिन चरखा भी तो एक यंत्र ही है। और नाक पर लगाया हुआ चश्मा भी आंखकी मदद करनेको लगाया हुआ यंत्र ही है। हल भी यंत्र है। और पानी खींचनेके पुरानेसे पुराने यंत्र भी शायद मानव-जीवन को सुधारने की मनुष्यकी हज़ारो बरसकी लगातार कोशिशके आखिरी फल होंगे।... किसी भी यंत्रका बुरा उपयोग होनेकी संभावना रहती है। लेकिन अगर ऐसा हो तो उसमें रही हुई नैतिक हीनता यंत्रकी नहीं, लेकिन उसका उपयोग करनेवाले मनुष्यकी है।'

मुझे इतना तो कबूल करना चाहिये कि गांधीजीने ‘अपने विचारोंके जोशमें' यंत्रोंके बारे में अनगढ़ भाषा इस्तेमाल की है और आज अगर वे इस पुस्तकको फिरसे सुधारने बैठें तो उस भाषाको वे खुद बदल देंगे। क्योंकि मुझे यकीन है कि मैंने ऊपर समालोचकोंके जो कथन दिये हैं उनका गांधीजी स्वीकार करेंगे; और जो नैतिक गुण यंत्रका इस्तेमाल करनेवालेमें रहे हैं, उन गुणोंको उन्होंने यंत्रके गुण कभी नहीं माना। मिसालके तौर पर १९२४ में उन्होंने जो भाषा इस्तेमाल की थी वह ऊपर दिये हुए दो कथनोंकी याद दिलाती है। उस साल दिल्लीमें गांधीजीका एक भाईके साथ जी संवाद[२] हुआ था, वह मैं नीचे देता हूँः

'क्या आप तमाम यंत्रोंके खिलाफ हैं?' रामचन्द्रन्ने सरल भावसे पूछा।

  1. बिलावजह।
  2. बातचीत।