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मजदूरको पहुंचायेगा। मेरी कल्पनामें यंत्रोके बारेमें जो कुछ अपवाद हैं, उनमें से एक यह है। सिंगर मशीनके पीछे प्रेम था, इसलिए मानव-सुखका विचार मुख्य[१] था। उस यंत्रका उद्देश्य है मानव-श्रमकी बचत। उसका हस्तेमाल करनेके पीछे मक़सद धनके लोभका नहीं होना चाहिये, बल्कि प्रामाणिक रीतिसे[२] दयाका होना चाहिये। मसलन्, टेढ़े तकुवेको सीधा बनानेवाले यंत्रका मैं बहुत स्वागत करूंगा। लेकिन लुहारोंका तकुवे बनानेका काम ही ख़तम हो जाय, यह मेरा उद्देश्य नहीं हो सकता। जब तकुवा टेढ़ा हो जाय तब हरएक कातनेवालेके पास तकुवा सीधा कर लेनेके लिए यंत्र हो, इतना ही मैं चाहता हूँ। इसलिए लोभकी जगह हम प्रेमको दें। तब फिर सब अच्छा ही अच्छा होगा।’

मुझे नहीं लगता कि ऊपरके संवादमें गांधीजीने जो कहा है, उसके बारेमें इन आलोचकोंमें से किसीका सिद्धान्त[३] की दृष्टिसे विरोध हो। देहकी तरह यंत्र भी, अगर वह आत्माके विकासमें मदद करता हो तो, और जितनी हद तक मदद करता हो उतनी हद तक ही, उपयोगी है।

पश्चिमकी सभ्यताके बारेमें भी ऐसा ही है। ‘पश्चिमकी सभ्यता मनुष्यकी आत्माकी महाशत्रु है’—इस कथनका विरोध करते हुए मि० कोल लिखते हैं: ‘मैं कहता हूँ कि स्पेन और एबिसीनियाके भयंकर संहार,[४] हमारे सिर पर हमेशा लटकनेवाला भय, सब तरहकी रिद्धि-सिद्धि पैदा करनेकी शक्ति मौजूद होने पर भी करोड़ोंका दारिद्र्य, ये सब पश्चिमकी सभ्यताके दूषण[५] हैं, गंभीर दूषण हैं। लेकिन वे कुदरती नहीं हैं, सभ्यताकी जड़ नहीं हैं।... मैं यह नहीं कहता कि हम अपनी इस सभ्यताको सुधारेंगे; लेकिन वह सुधर ही नहीं सकती, ऐसा मैं नहीं मानता। जो चीज़ें मानवकी आत्माके लिए ज़रूरी हैं, उनके साफ इनकार पर उस सभ्यताकी रचना हुई है ऐसा मैं नहीं मानता।’ बिलकुल सही बात है। और गांधीजीने उस सभ्यताके जो दूषण बताये वे कुदरती नहीं थे, बल्कि उस सभ्यताकी प्रवृत्तियोंमें रहे हुए दूषण थे; और इस

  1. खास।
  2. ईमानदारीसे।
  3. उसूल।
  4. कत्ल।
  5. खराबियां।