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पुस्तकमें गांधीजीका मक़सद भारतीय सभ्यताकी प्रवृत्तियां पश्चिमकी सभ्यताकी प्रवृत्तियों से कितनी भिन्न हैं यही दिखानेका था। पश्चिमकी सभ्यताको सुधारना नामुमकिन नहीं है, मि० कोलकी इस बातसे गांधीजी पूरी तरह सहमत[१] होंगे; उनको यह भी मंजूर होगा कि पश्चिमको पश्चिमके ढंगका ही स्वराज्य चाहिये; वे आसानीसे यह भी स्वीकार करेंगे कि वह स्वराज्य ‘गांधी जैसे आत्म-निग्रहवाले[२] पुरुषोंके विचारके अनुसार तो होगा, लेकिन वे पुरुष हमारे पश्मिमके ढंगके होंगे; और वह ढंग गांधी या हिन्दुस्तानका नहीं, पश्चिमका अपना निराला ही ढंग होगा।’

सिद्धान्तकी मर्यादा

अध्यापक कोलने नीचेकी उलझन सामने रखी है:

‘जब जर्मन और इटालियन विमानी स्पेनकी प्रजाका संहार कर रहे हों, जब जापानके विमानी चीनके शहरों में हजारों लोगोंको कत्ल कर रहे हों, जब जर्मन सेनाएँ आस्ट्रियामें घुस चुकी हों और चेकोस्लोवाकियामें घुस जानेकी धमकियाँ दे रही हों, जब एबिसीनिया पर बम बरसाकर उसे जीत लिया गया हो, तब आजके ऐसे समयमें क्या यह (अहिंसाका) सिद्धान्त टिक सकेगा? दो-एक बरस पहले मैं तमाम संजोगोंमें युद्धका और मृत्युकारी हिंसाका विरोध करता था। लेकिन आज, युद्धके बारेमें मेरे दिलमें नापसन्दगी और नफ़रत होने पर भी, इन कत्लेआमों—हत्याकांडोंको रोकनेके लिए मैं युद्धका खतरा ज़रूर उठाऊंगा।’

उनके मनमें एक-दूसरेके विरोधी ये विचार कैसा सख्त संघर्ष मचा रहे हैं, यह नीचेकी सतरोंसे जाहिर होता है। वे कहते हैं:

‘मैं युद्धका खतरा ज़रूर उठाऊंगा, परन्तु अभी भी मेरा वह दूसरा व्यक्तित्व[३] इनसानकी हत्या करनेके विचारसे घबराकर, चोट खाकर पीछे

  1. हमराय।
  2. खुद पर काबू रखनेवाले।
  3. शख़्सियत।