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हटता है। मैं खुद तो दूसरेकी जान लेनेके बजाय अपनी जान देना ज्यादा पसन्द करूंगा। लेकिन अमुक संजोगोंमें खुद मर-मिटनेके बजाय दूसरेकी जान लेनेकी कोशिश करना क्या मेरा फ़र्ज नहीं होगा? गांधी शायद जवाब देंगे कि जिसने व्यक्तिगत[१] स्वराज्य पाया है, उसके सामने ऐसा धर्मसंकट[२] पैदा ही नहीं होगा। ऐसा व्यक्तिगत स्वराज्य मैंने पाया है, यह मेरा दावा नहीं है। लेकिन ख़याल कीजिये कि मैंने ऐसा स्वराज्य पा लिया है, तो भी उससे पश्चिम यूरोपमें आजके समय मेरे लिए यह सवाल कुछ कम ज़ोरदार हो जायेगा ऐसा मुझे विश्वास नहीं होता।'

मि० कोलने जो संजोग बताये हैं, वे मनुष्यकी श्रद्धा[३] की कसौटी ज़रूर करते हैं। लेकिन इसका जवाब गांधीजी अनेक बार दे चुके हैं, हालांकि उन्होंने अपना व्यक्तिगत स्वराज्य पूरी तरह पाया नहीं है; क्योंकि जब तक दूसरे देशबन्धुओंने स्वराज्य नहीं पाया है, तब तक वे अपने पाये हुए स्वराज्यको अधूरा ही मानते हैं। लेकिन वे श्रद्धाके साथ जीते हैं और अहिंसाके बारेमें उनकी जो श्रद्धा है वह इटली या जापानके किये हुए कत्लेआमोंकी बात सुनते ही डगमगाने नहीं लगती। क्योंकि हिंसामें से हिंसाके ही नतीजे पैदा होते हैं; और एक बार उस रास्ते पर जा पहुंचे कि फिर उसका कोई अन्त ही नहीं आता। ‘चीनका पक्ष लेकर आपको लड़ना चाहिये' ऐसा कहनेवाले एक चीनी मित्रको जवाब देते हुए ‘वार रेज़िस्टर' नामक पत्रमें फिलिप ममफर्डने लिखा है:

‘आपकी शत्रु तो जापानकी सरकार है; जापानके किसान और सैनिक आपके दुश्मन नहीं हैं। उन अभागे और अनपढ़ लोगोंको तो मालूम भी नहीं कि उन्हें क्यों लड़नेका हुक्म किया जाता है। फिर भी, अगर आप अपने देशके बचावके लिए मौजूदा लश्करी तरीकोंका उपयोग करेंगे, तो आपको इन बेकसूर लोगोंको ही–जो आपके सच्चे दुश्मन नहीं हैं उन्हींको-मारना पड़ेगा। अहिंसाकी जो रीति गांधीजीने हिन्दुस्तानमें

  1. अपना।
  2. पशोपेश, दुविधा।
  3. अक़ीदा।