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उसे पुस्तकके रूपमें प्रगट किया गया और बम्बई सरकारने उसे ज़ब्त किया। गांधीजीने मि.कैलनबैकके लिए उस किताबका अंग्रेजीमें जो अनुवाद किया था, उसे बम्बई सरकारके हुक्मके जवाबके रूपमें प्रकाशित किया गया। गोखलेजी १९१२ में जब दक्षिण अफ्रीका गये तब उन्होंने वह अनुवाद देखा। उन्हें उसका मजमून इतना अनगढ़ लगा और उसके विचार ऐसे जल्दबाज़ीमें बने हुए लगे कि उन्होने भविष्यवाणी की कि गांधीजी एक साल भारतमें रहनेके बाद खुद ही उस पुस्तकका नाश कर देंगे। गोखलेजीकी वह भविष्यवाणी सच नहीं निकली। १९२१ में गांधीजीने उस पुस्तकके बारेमें लिखते हुए कहा था :

‘वह द्वेषधर्मकी जगह प्रेमधर्म सिखाती है; हिंसाकी जगह आत्मबलिदानको रखती है; पशुबलसे टक्कर लेनेके लिए आत्मबलको खड़ा करती है। उसमें से मैंने सिर्फ एक ही शब्द - और वह एक महिला मित्रकी इच्छाको मान कर - रद किया है। उसे छोड़कर कुछ भी फेरबदल नहीं किया है। इस किताबमें आधुनिक[१] सभ्यताकी सख्त टीका की गई है। यह १९०९ में लिखी गई थी। इसमें मैंने जो मान्यता प्रगट की है, वह आज पहलेसे ज्यादा मजबूत बनी है।... लेकिन मैं पाठकोंको एक चेतावनी देना चाहता हूँ। वे ऐसा न मान लें कि इस किताबमें जिस स्वराज्यकी तसवीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज्य कायम करनेके लिए आज मेरी कोशिशें चल रही हैं, मैं जानता हूँ कि अभी हिन्दुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है। ऐसा कहनेमें शायद ढिठाईका भास हो, लेकिन मुझे तो पक्का विश्वास है। उसमें जिस स्वराज्यकी तसवीर मैंने खींची है, वैसा स्वराज्य पानेकी मेरी निजी कोशिश ज़रूर चल रही है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आजकी मेरी सामूहिक[२] प्रवृत्तिका ध्येय तो हिन्दुस्तानकी प्रजाकी इच्छाके मुताबिक पार्लियामेन्टरी ढंगका स्वराज्य पाना है।'

  1. आजकी।
  2. आम।