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१९३८ में भी गांधीजीको कुछ जगहों पर भाषा बदलनेके सिवा और कुछ फेरबदल करने जैसा नहीं लगा। इसलिए यह किताब किसी भी प्रकारकी काट-छांटके बिना मूल रूपमें ही फिरसे प्रकाशित की जाती है।

लेकिन इसमें बताये हुए स्वराज्यके लिए हिन्दुस्तान तैयार हो या न हो, हिन्दुस्तानियोंके लिए यही उत्तम[१] है कि वे इस बीजरूप ग्रंथका अध्ययन करें। सत्य और अहिंसाके सिद्धान्तोंके स्वीकारसे अंतमें क्या नतीजा आयेगा, उसकी तसवीर इसमें है। इसे पढ़कर उन सिद्धान्तोंको स्वीकार करना चाहिये या उनका त्याग, यह तो पाठक ही तय करें।

वर्धा, २-२-'३८

महादेव हरिभाई देसाई

(अंग्रेजीके गुजराती अनुवाद परसे)

  1. सबसे अच्छा।